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________________ १४ : पंचलिंगीप्रकरणम् ५-६. संज्वलनादि (संज्वलन, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानावरण व अनन्तानुबन्धी) चार प्रकार के कषाय जीव को क्रमशः एक पक्ष (पखवाड़ा या पन्द्रह दिन का काल), चातुर्मास पर्यन्त, वर्ष पर्यन्त तथा आजीवन ग्रस्त करते माने जाते हैं फिर भी ये भाव प्रधान होने से तथा इन्हें क्रमशः देव, मनुष्य, तिर्यंच व नरक गति के कारक मानने से अविरत सम्यग्दृष्टि के तिर्यंचगति में जाने का प्रसंग उपस्थित होने से इनमें विशेष भेद नहीं किया जा सकता है। और भी यदि अनंतानुबंधी कषाय को यावज्जीवन अनुगामी माना जाए तो मिथ्यात्वी जीव सम्यग्दर्शन ही किस प्रकार प्राप्त कर सकता है तथा देशविरत सम्यग्दृष्टि को मनुष्यभवबंधयोग भी कैसे हो सकता है? यहाँ शास्त्रकार यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि यदि प्रथम सम्यक्त्वलिंग - उपशम को कषायाधारित माना जाए तो क्या-क्या विसंगतियाँ उपस्थित होती हैं। यहाँ इस बिंदु को दो उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है - प्रथमतः इन्हें अनुक्रम से देव, मनुष्य, तिर्यंच व नारक गति के कारक माने तो अविरत सम्यग्दृष्टि के तियंचगति में जाने का प्रसंग उपस्थित होता है (तथा पंचम गुणस्थानवर्ती देशविरत साधक के लिये भी निश्चित रूप से मनुष्यायु के बन्ध का योग नहीं होता है) जो शास्त्रसम्मत नहीं है। दूसरे यदि अनन्तानुबन्धी कषाय को भी जीव के लिये आजीवन अनुगामी माना जाय तो मिथ्यादृष्टि के लिये सम्यक्त्व उत्पन्न होने की ही कोई संभावना नहीं रहती है क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व में बाधक माना गया है। इन सब कारणों को दृष्टिगत रखते हुवे उपशम को कषायाधारित मानना तथा कषायों को देवादिगति के हेतुरूप मानना समीचीन नहीं है।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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