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________________ १२ : पंचलिंगीप्रकरणम् पक्खचउम्माससंवच्छर-जावज्जीवाणुगामिरूवो न खलु विसेसो अविरय तिरियगई पसंगाओ।। ५ ।। जावज्जीवमणंता मिच्छदिट्ठी कहं लभे सम्मत्तं ? । देसजइणो न कहवा मणुयाउ य बद्धजोगा उ।। ६ ।। पक्ष-चतुर्मास-सम्वत्सर-यावज्जीवानुगामिरूपस्तु न खलु विशेषोऽविरतः तिर्यग्गति-प्रसङ्गात् ।। ५ ।। यावज्जीवमनन्ताः मिथ्यादृष्टयः कथं लभ्यते सम्यक्त्वम्? । देशयतयश्च कथं वा मनुजायुर्बन्धयोग्यास्तु?।। ६ ।। युग्मम् ।। पक्ष, चातुर्मास और सम्वत्सर जीवनपर्यन्त अनुगामीरूप । चार-कषाय से चारगतिकामी की, तीव्र-मन्दता के ही अनुरूप ।।५।। अनन्तानुबन्धी यदि अनुगामी आजीवन हो, मिथ्यादृष्टि को सम्यक्त्व क्योंकर?। देशविरत के फिर कैसे मनुष्यायु का बन्ध-योग न हो सुखकर? ।। ६ ।।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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