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पञ्चलिङ्गीप्रकरणम्
प्रकाशकीय
प्राकृत जैन - साहित्य भारतीय संस्कृति और साहित्य की अमूल्य निधि है जिसमें आध्यात्म एवं जीवन-दर्शन के अनमोलरत्न विद्यमान हैं। दुर्भाग्य से इनमें से अनेक ग्रंथों के सरल हिंदी भाषा में अनुवाद उपलब्ध न होने से जनसाधारण इनकी ज्ञान-निधि का पर्याप्त लाभ उठाने में असमर्थ रह जाते हैं ।
यह संस्था आगम-ज्ञान व धार्मिक साहित्य को सरल व सुबोध हिंदी व अंग्रेजी भाषाओं में उपलब्ध करवाकर जिज्ञासु पाठकों की इस समस्या का निराकरण करने के लिये सतत प्रयासरत है ।
वसतिमार्गप्रकाशक खरतरगच्छ के आद्याचार्य श्रीमज्जिनेश्वरसूरि विरचित ‘पञ्चलिङ्गीप्रकरणम्' जैन- दर्शन के एक अति महत्त्वपूर्ण विषय सम्यक्त्व के पाँच लिंगों (उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, व आस्तिक्य) का गहन विवेचन करने वाला ग्रंथ है, जिसकी सभी निष्ठावान् साधुधु-साध्वियों तथा श्रावक-श्राविकाओं के लिये उपयोगिता सर्वविदित है। लेकिन फिर भी यह ग्रंथ सर्वसुलभ नहीं है क्योंकि इसका हिन्दी व अन्य आधुनिक भाषाओं में अनुवाद नहीं हुआ है । हमें प्रसन्नता है कि संस्कृत की विदुषी डॉ. हेमलता बोलिया और प्राकृतभाषाविद् व जैन-दर्शन के गंभीर अध्येता डॉ. (कर्नल) दलपतसिंहजी बया ने अत्यंत परिश्रम व प्रयास - पूर्वक इस ग्रंथ के शोधपूर्ण परिचय के साथ ही इसकी प्राकृत गाथाओं की संस्कृत छाया, तथा सरल व सुबोध हिन्दी व आंग्लभाषा में गद्य-पद्यानुवाद सहित प्रणयन किया है जिससे विद्वद्वर्ग तथा जनसामान्य दोनों समान रूप से लाभान्वित हो सकेंगे । ग्रंथ के प्रारम्भ में ही दिये गए सम्यग्दर्शन-दिग्दर्शन, ग्रंथ - समीक्षा व ग्रंथकार के परिचय सहित शोधपूर्ण परिचयात्मक लेख व अकारादिक्रम में गाथानुक्रमणिका,