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________________ XXXVIII : पंचलिंगीप्रकरणम् ग्रंथ की भाषा व शैली : इस ग्रंथ की रचना जैन महाराष्ट्री प्राकृत में गाथा छंद में एक सरस काव्यात्मक कृति के रूप में की गई है। ग्रंथ का आकार : यह ग्रंथ १०१ गाथाप्रमाण है। इसके सटीक संस्करण में १८७ पत्रक हैं। ग्रंथ का रचनाकाल : यद्यपि इस ग्रंथ के रचनाकाल के संबंध में कोई निश्चित तिथि प्राप्त नहीं होती है, फिर भी प्राप्त प्रमाणों के आधार पर इसका रचनाकाल विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दि का अंतिम चतुर्थांश ठहरता है। उपलब्ध प्रति : इस ग्रंथ की उपलब्ध प्रति का प्रकाशन श्रीमदर्हत्सिद्धांत पारंगत श्रीमज्जिनपतिसूरिविरचित वृहवृित्ति टीका सहित व उपाध्याय श्री जिनपालगणि संकलित टिप्पणियों से समालंकृत श्री जिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार फंड द्वारा अर्हम् ग्रंथांक १० के रूप में आचार्य कृपाचंदजी महाराज, नवा उपासरा, गोपीपुरा, सूरत द्वारा सन् १६१६ में हुआ है। पंचलिंगीप्रकरणम् की विषयवस्तु - इस ग्रंथ की विषयवस्तु सम्यक्त्व के पाँच लिंगों का विवेचन है। शास्त्रकार ने प्रथम गाथा में ही सम्यक्त्व के पाँच लिंगों - उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, व आस्तिक्य - का नामनिर्देश किया है, तथा यह भी इंगित किया है कि यह ग्रंथ गाथा छंद में निबद्ध है।' उपशमलिंग : दूसरी से तेरहवीं गाथाओं में प्रथम सम्यक्त्वलिंग - उपशम का विवेचन करते हुए आचार्य विभिन्न तों से यह सिद्ध करते हैं कि मिथ्याभिनिवेश का उपशम न कि अनन्तानुबंधी कषायों का उपशम सम्यक्त्वलिंग है। उनके अनुसार अतत्त्व के प्रति रुचि मिथ्यात्व का __ पंचलिंगीप्रकरणम्, १. वही, २.
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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