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________________ XXXIV : पंचलिंगीप्रकरणम् अन्यों के उपशम से अस्थाई रूप से प्रकट होने वाला सम्यक्त्व क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व कहलाता है । इसकी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम की होती है । ३. क्षायिक सम्यक्त्व यह सात मिथ्यात्व - कारणों के संपूर्ण क्षय से उत्पन्न वह स्थाई सम्यक्त्व होता है जो एक बार प्रकट होने पर पुनः लुप्त नहीं होता है । व्यवहार-नय व निश्चय - नय के हेतु से भी सम्यक्त्व को दो वर्गों में रखा गया है । यथाः १. निश्चय - सम्यक्त्व यह एक स्थिति विशेष है जो केवल भावना के स्तर पर होती है । इसके कोई बाह्य सूचक लक्षण नहीं होते हैं तथा इस स्थिति में साधक केवल स्वात्म को ही समस्त आध्यात्मिक गुणों का आधार मान कर आत्म- गवेषणा द्वारा ही उन्हें प्रकट करने के लिये केवल उसी (निजात्मा ) पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है । २. व्यवहार - सम्यक्त्व यह वह दृष्ट सम्यक्त्व है जिसके लक्षण प्रकट रूप में सुदेव, सुगुरु व सद्धर्म पर श्रद्धा-भक्ति के रूप में दिखाई देते हैं । - अंत में हम उन कारणों की समीक्षा करते हैं जो कि सम्यक्त्व को दृढ़ या क्षतिग्रस्त करते हैं । जो पाँच कारण सम्यक्त्व को दृढ़ करते हैं वे हैं - १. स्थिरता जिन प्रतिपादित धर्म पर अडिग विश्वास रखना तथा उसका दृढ़ता से पालन करना स्थिरता है । - २. प्रभावना सम्यग्दृष्टि साधक - श्रावक को सदैव धर्म की उन्नति के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये तथा जो भी शंकाएँ हों, चाहे स्वधर्मानुयाइयों द्वारा अथवा अन्य तीर्थियों द्वारा उठाई जाय, उनका सम्यक् समाधान करने के लिये तत्पर रहना चाहिये ।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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