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________________ १७६ : पंचलिंगीप्रकरणम् अतः स्पष्ट ही है कि, राग-द्वेष के अभाव से ही होता है साधक सर्वज्ञ। अन्य क्या दान-तप-विनयादि का, स्वर्ग-मोक्षयोग कर सकता अज्ञ।। ८६।। यदि ऐसे सर्वज्ञ का वचन नहीं होता प्रमाण, इस सब पदार्थ में। तो क्या इसमें युक्ति-सिद्ध साधन भी, नहीं निरर्थक - व्यर्थ में?।। ६० ।। ८६-६०. (जीव दया का उपदेशक आगम ही प्रमाण होता है) इस कारण से जिसका मोह क्षीण हो चुका है तथा जिसके राग-द्वेष का अस्तित्त्व ही समाप्त हो चुका है, वही साक्षात् सर्वज्ञ है। (यदि सर्वज्ञ नहीं होते तो) दान, तप, विनय आदि का स्वर्ग और मोक्ष के साथ (तथा हिंसा, चोरी आदि का नरकादि गति के साथ) सम्बन्ध कैसे (स्थापित) होता? अर्थात् इस सम्बन्ध का दिग्दर्शन व व्याख्यान कौन करता? इन सब पदार्थों में सर्वज्ञ का वचन ही प्रमाण है। (प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध) उस सर्वज्ञ की सिद्धि अनुमान आदि प्रमाणों से करना (आप जैसे सर्वज्ञवादी नैयायिकों के मत में) निरर्थक व निष्प्रयोजन नहीं होगा? भावार्थ : इन गाथाओं में उनके गुणों का खुलासा करके शास्त्रकार ने सर्वज्ञ को प्रत्यक्ष प्रमाणित व उनके कथन को ही प्रमाण माना है।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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