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________________ १६० : पंचलिंगीप्रकरणम् पइजंतुभेयं भिन्नो प्रतिजंतुभेदं भिन्नः जीवो संसारो मुक्खो वा विरोहओ उ इहरा संसारः मोक्षः अथवा विरोधस्तु सबका होगा एक साथ - थ - अभिन्न, कह णु एगत्तं ।। ८२ ।। जीवः प्रत्येक जन्तु के भेद से जीव भिन्न है, उ सव्वजीवाणं । इतरथा तु सर्वजीवानाम् । कथं नु एकत्वम् ।। ८२ ।। अथवा संसार - मोक्ष भी । कैसे हो एकात्मा का बोध भी ? ।। ८२ ।। ८२. प्रति व्यक्ति के भेद से जीव ( आत्मा ) भिन्न-भिन्न हैं । यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो सभी जीवों के संसार (परिभ्रमण ) अथवा मोक्ष एक साथ होने का प्रसंग उपस्थित होगा (संभावना बनेगी ) । अतः आत्मा एक कैसे हो सकता है? (इस प्रकार एकात्मवादियों के मत का निरसन होता है ।)
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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