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१५२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
पंचमलिंग : आस्तिक्य
सम्मदिट्ठी जीवो जहत्थावोहाणुगो तओ मुणइ। परलोगााणुट्ठाणं न घडइ जीवं विणा सव्वं ।। ७८ ।।
सम्यग्दृष्टिः जीवो यथार्थबोधानुगो ततः जानाति। परलोकानुष्ठानं न घटते जीवं विना सर्व ।। ७८ ।।
सम्यग्दृष्टि जीव यथार्थबोध से जानता, इस बात को। जीव के बिना सभी परलोकानुष्ठान, घट सकते नहीं कभी ।। ७८ ।।
७८. यथार्थबोधानुग (जिसको निरंतर शुद्ध सिद्धांत के श्रवण से यथार्थज्ञान उत्पन्न हुआ है) सम्यग्दृष्टि अरत्मा जानता है कि परलोक सम्बन्धी अनुष्ठान (जिनपूजा, दान, महाव्रतपालन, तप, ब्रह्मचर्यादि) बिना जीव (चेतन आत्मा) के घटित नहीं हो सकते हैं।
अथवा : इस गाथा में शास्त्रकार आस्तिक्य (आत्मा के अस्त्वि में सम्यक् श्रद्धा) की आवश्यकता को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि उपशम, संवेग, निर्वेद व अनुकम्पा युक्त सम्यग्दृष्टि जीव निरंतर शुद्ध सिद्धान्तश्रवण से उत्पन्न सम्यक् बोध द्वारा यह जानता है कि जीव (आत्मा के अस्तित्व) के बिना परलोक संबन्धी सभी मान्यताएँ तथा सभी कार्यकलाप कभी भी घटत नहीं हो सकते है। अतः आत्मा के अस्तित्व में आस्था आवश्यक है।