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________________ १५० : पंचलिंगीप्रकरणम् एवं विहपरिणामो सम्मदिट्ठीजिणेहिं पन्नत्तो । तव्विह चिट्ठाइ पुणो नज्जइ भावो वि एयस्स ।। ७७ ।। सम्यग्दृष्टिजिनैः ज्ञायते भावोऽपि एवं विधपरिणामः तद्विधचेष्टया पुनः इस प्रकार का परिणाम सम्यग्दृष्टि का प्रज्ञप्तः खलु'। एतस्य ।। ७७ ।। उस प्रकार की चेष्टाओं द्वारा फिर जाना जाता है, उसका भाव समस्त ।। ७७ ।। ७७. स्म्यग्दृष्टि आत्मा इस प्रकार ( अनुकम्पा ) परिणाम वाला होता है, ऐसा सर्वज्ञ जिनों (जिनेश्वरदेवों) के द्वारा कहा गया है। इस (सम्यग्दृष्टि) के परिणामों (भावों) को उसके द्वारा किये गए कार्यकलापों (जीवरक्षण, जिनालयनिर्माण, पुस्तक लेखन, आदि) के द्वारा जाना जा सकता है । १ जिनेश्वर देवों के द्वारा है प्रज्ञप्त । - भावार्थ : सम्यक्त्व के चतुर्थ लिंग अनुकम्पा के वर्णन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि इस प्रकार के अनुकम्पा - परिणामों से ही सम्यग्दृष्टि आत्मा की पहचान होती है तथा उसका वह भाव उसके द्वारा किये और कराए जाने वाले कार्यों के द्वारा ही ज्ञात होता है । (इति चतुर्थ लिंगम्) 'खलु' का प्रयोग छन्द में मात्रा पूर्ति के लिये किया गया है।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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