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१४४ : पंचलिंगीप्रकरणम्
दाणं न होइ विहलं पत्तमपत्ते य संनिउज्जंतं । इय वि भणिए दोसा पसंसओ किं पुण अपत्तो ।। ७४ ।।
दानं न भवति विफलं पात्रापात्रे च संनियुज्यमानम् । इत्यपि भणिते दोषा प्रशंसतः किं पुनोपात्रम् ।। ७४ ।।
दोषपूर्ण है यह कहना कि पात्रापात्र को
फिर अपात्रदान की प्रशंसा - प्रेरणा तो
दिया दान नहीं होता निष्फल ।
दोषयुक्त ही है, निश्चित देती है दुष्फल ।। ७४ ।।
७४.
' पात्र अपात्र में दिया हुआ दान कभी विफल नहीं होता है' ऐसा कहना भी दोषपूर्ण है तो फिर अपात्रदान की प्रशंसा करने में कितना दोष होगा?
भावार्थ : "दरिद्र और क्षुद्र चरित्र वालों को आहार, वस्त्र, पात्रादि दान में पात्रपरीक्षा करते हुवे लज्जा भी नहीं आती?" जैसी उक्तियों से यह सिद्ध करना कि सत्पात्र ( संयत, सम्यग्दृष्टि) को अथवा ( असंयत, मिथ्यादृष्टि) असत्पात्र को दिया हुवा भक्तपानादि का दान निष्फल नहीं होता है, तथा सत्पात्र की तरह अपात्र में संनियुज्यमान अर्थात् वितीर्यमाण दान भी सफल ही होता है । इस प्रकार साधु यदि दाता को अपात्र दान के लिये प्रेरित करे अथवा अपात्र को दिये दान की प्रशंसा करे तो वैसे ही दोष का भागी होता है जैसे कि आज्ञाभंग, अनवस्था, मुग्धजनोत्पथस्थिरीकरण, सत्पथवैमुख्य आदि दोष या अपराध होते हैं।