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________________ १४० : पंचलिंगीप्रकरणम् तह जोइसत्थकंडाइ विज्जुयं मणुयतुरयहत्थीणं। तहा हेमजुत्तिमिसुकलमक्खायंतो' हणे जीवे ।। ७२ ।। तथा ज्योतिषार्थकाण्डादि वैद्यकं मनुज-तुरग-हस्तिनाम्। तथा हेमयुक्तीषुकलाव्याचक्षाणः हन्याज्जीवान् ।। ७२ ।। तथा ज्योतिषविद्या, अर्थशास्त्र, और मनुष्य, अश्व, और हस्ति-वैद्यक का उपदेश?। ये सब और धातुकला व धनुर्वेद तो हैं ही जीव-हनन के निश्चित निर्देश ।। ७२।। ७२. उपरोक्त (राजनीति) के अतिरिक्त ज्योतिष (तिथि-नक्षत्र आदि बलाबल प्रतिपादक, प्राणियों का अतीन्द्रिय शुभाशुभादि व्यंजक शास्त्र), अर्थकाण्ड (अर्थशास्त्र); मानव, अश्व, हस्ति के वैद्यक (चरक, सुश्रुत, वाग्भट, शालिहोत्रादि द्वारा प्रणीत रोगचिकित्सा प्रकाशक शास्त्र); तथा वैसे ही हेमयुक्ति (सुवर्ण सिद्धि आदि धातुकर्म संबन्धी शास्त्र) और इशुकला (धनुर्वेद) के व्याख्यान के द्वारा वह कुशल उपदेष्टा निश्चित ही जीवहनन का भागी होता है क्योंकि इन इन विद्याओं का ज्ञान हिंसा, पापकर्म, व सावद्ययोग का निमित्त होता है। इनका उपदेष्टा भी हिंसा में बराबर का भागीदार होता है। अतः अनुकम्पापरक - दयालु सर्वविरत, सम्यग्दृष्टि मुनि इनका उपदेश नहीं देता है। १ 'हेमजुत्तिमिसुकलामक्खायंतो' होना चाहिये। २ छन्द की दृष्टि से 'तथा' के स्थान पर 'च' होना चाहिये।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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