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________________ १३६ : पंचलिंगीप्रकरणम् इत्तो च्चिय सो हलसयडपोयसंगामगोहणाईसु। उवएसपि हु कहं देइ सत्तअणुकम्पासंयुत्तो।। ७०।। अस्मादेव स हलशकटपोतसंग्रामगोधनादिषु। उपदेशमपि नु कथं ददाति सत्वानुकम्पासंयुक्तः ।। ७०।। अतएव वह सत्वानुकम्पासंयुक्त मुनि कैसे दे सकता है उपदेश। हलचालन, पोत-वाहन, युद्ध संचालन, व गोधनादि का संदेश? ।। ७०।। ७०. इसलिये सर्वसत्वानुकम्पी (प्राणिमात्र पर दया करने वाले) सम्यग्दृष्टि जैन मुनि (श्रावको की आजीविका के लिये भी) हल चलाने, छकड़ा या वाहन बनाने-चलाने, जहाज बनाने-चलाने, युद्ध करने तथा पशु पालन का उपदेश कैसे दे सकते हैं? अर्थात् नहीं दे सकते हैं और उन्हें ऐसा उपदेश नहीं देना चाहिये। इसीलिये कहा है - "खित्ते खडेह गोणे दमेह एमाइ सावगजणस्स । उवसिउं नो कप्पइ जाणिय जिणवयणसारस्स ।।" अर्थात् जिनवचन का सार यह है कि इसपर सम्यक् श्रद्धा रखने वाले साधक के लिये श्रावक लोगों को खेत खोदने, गायों को बांधने आदि का उपदेश भी देना कल्प्य नहीं है।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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