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________________ १२० : पंचलिंगीप्रकरणम् अन्नेसिं पवत्तीए सो सुत्ताओ नक्कइ अन्येषां स सूत्रात् ज्ञायते प्रवृत्तेः ऐसा निबन्धणं होइ विहि समारंभो । १ तं चिय लहेमि ता पढमं ।। ६१ ।। निबन्धनं भवति विधिसमारम्भः । विधिपूर्वक किया गया समारम्भ बनता, तदेव' लेखयामि तत् प्रथमम् ।। ६१ ।। अन्यों के लिये भी सदाचरण का निमित्त । सूत्र- वर्णित्, प्रथम वही लिखवाता हूँ सूत्र - संक्षिप्त।। ६१। -- 20. विधिपूर्वक - सूत्रवर्णित रीति से सम्यक्तया प्रारम्भ किया हुवा समारम्भ (जिनालय का निर्माण) निर्माता के अतिरिक्त अन्य भव्य जीवों कि लिये भी सदनुष्ठान सदाचरण का हेतु होता है। वह विधि सूत्र - आगम से जानी जाती है। अतः संक्षिप्ततः वह विधि-विज्ञाननिबन्धन- न - सूत्र ही पहले लिखवाता हूँ । छन्द की दृष्टि से 'तद् एव' पृथक करके पठनीय ।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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