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________________ १०२ : पंचलिंगीप्रकरणम् इइ भावणासमेओ सम्मदिट्ठी जिणेहिं अक्खाओ। तविहचिट्ठा अवसियमणपरिणामो महासत्तो।। ५२ ।। इति भावनासमेतः सम्यग्दृष्टिः जिनैः आख्यातः। तद्विधचेष्टा अवसितमनःपरिणामः महासत्वः।। ५२।। जो जीव ऐसे भाव रखता, वह है सम्यग्दृष्टि - कहते जिन। वैसी चेष्टाओं से भासित होता, उस महासत्व का निर्विग्न मन।। ५२ ।। ५२. इस प्रकार की (उपर्युक्त) भावना से युक्त, उस प्रकार की (निर्वेदाभिव्यंजिका) चेष्टा वाला तथा अवसितमन परिणाम (अनुमित निर्वेद सूचक चिंता-अध्यवसाय) वाला महासत्त्वशाली (जो विपत्ति में भी व्याकुल नहीं होता है) सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जिनेश्वरदेव ने कहा है। भावार्थ : पूर्ववर्णित संसार के दुःखमयत्व, अनित्यत्व, अशरणत्व आदि मनःपरिणाम युक्त जीव को जिनेश्वरदेव के द्वारा सम्यग्दृष्टि कहा गया है। उस प्रकार की निर्वेद अभिव्यंजक चेष्टा - सांसारिक वस्तुओं में अनसक्ति का भाव व सावद्यकर्म को नहीं कराने वाली बाह्य क्रियाओं के रूप में सम्यक्त्व के तृतीय लिंग रूप से अवसित मनःपरिणाम अर्थात् 'निर्वेद' है तथा ऐसा व्यक्ति महासत्व है जो विपत्ति में भी अनाकुल रहता है। (इति तृतीयलिंगम्)
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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