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________________ १०० : पंचलिंगीप्रकरणम् सो सव्वविरइ आरा हरिसट्ठाणं अपावमाणो उ न लहइ। सव्वत्थ धिइं धणपरिणयसयणगेहेसु ।। ५१।। स सर्वविरतेः आरात् हर्षस्थानमप्राप्नुवन् ख्लु एव न। लभते सर्वत्र धृति, धनपरिजनस्वजनगेहेषु ।। ५१।। वह सम्यग्दृष्टि जीव होता नहीं हर्षित, जबतक ग्रहण न करता प्रव्रज्या-सर्वविरत । धन-परिजन-स्वजन-गृह आदि में भी, रहता नहीं होकर अतिरत।। ५१।। ५१. (उपर्युक्त विचार करने वाला चिंतनशील सम्यग्दृष्टि प्राप्त) सर्वविरति के समीप पहुँचा हुआ (जिसकी भावना पूरीतरह सर्वविरति प्रव्रज्या ग्रहण करने की हो चुकी है किंतु जो अभी तक प्रव्रजित नहीं हुआ है) धन (हिरण्य-स्वर्ण, धन-धान्य, क्षेत्र-वास्तु रूपी धन-संपत्ति) परिजन (दास-दासी, आदि परिकर), स्वजन (माता-पिता, भाईबहिन, पुत्र-पत्नी, सगे-संबन्धी, आदि स्वजन) के बीच में रहता हुआ (रमण करता हुआ) भी वह (व्यक्ति) हर्षस्थान (मोक्ष/आनंद की अनुभूति) को प्राप्त नहीं करता है अतः ये सब उसे (मोक्षप्राप्ति में बाधक के रूप में) सुखकर प्रतीत नहीं होते हैं। अथवा : सम्यग्दृष्टि आत्मा भी प्रव्रज्या ग्रहण किये बिना मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है अतः यह धन-परिजन-स्वजन-गृहादि उसे सुखकर प्रतीत नहीं होते हैं।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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