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८२ : पंचलिंगीप्रकरणम्
चिंतासंतावेहि
य दारिद्दरुयाहि
दुप्पउत्ताहि ।
लद्धूणवि माणुस्सं मरंति केइ सुनिव्विण्णा ।। ४२ ।।
चिंता - संतापयोश्च
दारिद्र्यरुजाभिर्दुष्प्रयुक्ताभिः ।
लब्ध्वापि मानुष्यं म्रियन्ते केचित् सुनिर्विण्णाः ।। ४२ ।।
दुष्कृतजन्य
चिंता-संताप - दारिद्र्य, और रोग से आकुल । कई अकृतपुण्य मनुज भी मरते दुःखार्त-विरक्त-व्याकुल।। ४२ ।।
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४२. दुष्कर्म के उदय से कुछ अकृतपुण्य जीव मनुष्य जन्म पाकर भी इस दुःखमय संसार में कुटुम्ब पालनादि की चिंता से, राज्य - दण्ड अथवा चोरी हो जाने आदि के भय या संताप से, धन-धान्यादि के अभाव से, दुष्प्रयुक्त होने से ( असम्मानजनक कार्य करने के लिये नियुक्त होने की बाध्यता से) व हारी - बीमारी से त्रस्त होकर दुःखातिरेक से प्रवर्तित विरक्ति और अवसाद की दशा में मर जाते हैं ।
भावार्थ : इस गाथा में शास्त्रकार व्यक्ति के लिये चिंता और संताप के कारणों का खुलासा करते हुए कहते हैं कि कुटुम्ब के भरण-पोषण आदि की सम्यक् व्यवस्था का नहीं होना एक महान चिंता का कारण होता है; राजा, चोर, ग्रह आदि के द्वारा सताए जाने का भय संताप का प्रमुख कारण होता है; निर्धनता, रोग आदि असहनीय दुःख के कारण होते हैं; परवशता से दुष्प्रयुक्त होना आदि ऐसे दुःख हैं जिनसे गहन संताप प्राप्त होता है तथा इनसे व्यक्ति निर्वेद को प्राप्त होता है ।
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