SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ : पंचलिंगीप्रकरणम् सागरमेगं ति य सत्त दस तित्तीसं जाव 9 सागरमेकं त्रीणि सप्त दश सत्तरस तह य ठिइ सत्तसु पुढवीसु उक्कोसा ।। ३७ ।। सप्तदश तथा च त्रयस्त्रिशतं यावत् स्थितिः बावीसा । सप्तसु पृथिवीषु उत्कृष्टा ।। ३७ ।। स्थिति, तैतीस । सातवीं में नरक उत्कृष्ट सागरोपम अन्य छः में है वह: एक, तीन, सात, दस, सत्रह और बावीस ।। ३७ ।। ३७. सात नरक - भूमियों में नारक - जीवों की उत्कृष्ट (अधिकतम) आयु-स्थिति क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बावीस तथा तैतीस सागरोपम' पर्यन्त काल की होती है अर्थात् असंख्यात् काल की होती है । = द्वाविंशति । भावार्थ : पूर्व गाथा में असह्य नरकवेदना का वर्णन करने के पश्चात् शास्त्रकार यह भी बताना चाहते हैं कि नारक जीवों को ये वेदनाएँ कितने लम्बे समय तक भोगनी पड़ती हैं । = १ पल्योपम असंख्यात् वर्ष, तथा दश कोड़ाकोड़ी पल्योपम 9 सागरोपम
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy