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________________ ६८ : पंचलिंगीप्रकरणम् एवमणंतो जीवो, मिच्छत्ताईनिबंधणमणंतं कम्म। तत्तो संसारदुहसयाइं च पुणारुत्तं एवत्ति ।। ३५ ।। एवमनन्तः जीवः मिथ्यात्वादि निबन्धनमनन्तं कर्म। ततः संसारदुःखशतानि च पुनरुक्तमेव इति।। ३५।। ऐसा मानकर अविनाशी जीव, मिथ्यात्वादि से बांधता है कर्म अनन्त। उनसे ही होते हैं उसको, बारम्बार सांसारिक दुःख अनेक ।। ३५ ।। ३५. आत्मा अविनाशी है परन्तु मिथ्यात्वादि के कारण वह अनन्त कर्मों का बन्ध करता है। इसलिये संसार में बारम्बार सैंकड़ों दुःखों को प्राप्त करता है। भावार्थ : भव-जीव-कर्म के अनादित्व की भाँति ही उनके अनन्तत्त्व का निरूपण करते हुवे शास्त्रकार कहते हैं कि जीव अनन्त है, अविनाशी है, प्रध्वंसभावशून्य होने के कारण नित्य है। मिथ्यात्वादि कारणजन्य कर्म भी अनन्त हैं। (अनन्त पुद्गल परावर्त की अपेक्षा से) अनन्त (नित्य) जीव का कर्म के साथ संबन्ध भी अनन्त है। ऐसे कर्म से जीव को संसार में सैकड़ों प्रकार के दुःख बारम्बार होते रहते हैं। यहाँ शास्त्रकार संसार के दुःखमय होने का सुस्पष्ट उल्लेख कर अपने पाठकों को संसारविमुख कर उन्हें अनासक्ति - निर्वेद की ओर मोड़ना चाहते हैं।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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