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५८ : पंचलिंगीप्रकरणम्
संसारियअब्भुदये न मुणइ हरिसं असंजमे धणियं। वर्सेतो परितप्पइ मुणइ उवादेयमह धम्मं ।। ३०।।
सांसारिकाभ्युदये न जानाति हर्ष असंयमे धणितम्। वर्तमानः परितप्यते जानाति उपादेयमथ धर्मम् ।। ३० ।।
सांसारिक अभ्युदय का अनुसंधान नहीं, न संसार-व्यापार में माने हर्ष। पश्चाताप पूर्वक वर्तन ही, आद्यन्त उपादेय धर्म-स्पर्श ।। ३०।।
३०. संविग्न साधक सांसारिक अभ्युदय (लौकिक सुख-समृद्धि में वृद्धि) होने पर हर्षित नहीं होता है, असंयम का त्यागकर यथेष्ट संयम पूर्वक जीवन यापन करता है, संसार-व्यापार में हुए सावध कर्म के लिये जो पश्चाताप (खेद या दुःख) पूर्वक वर्तन करता है, ऐसा साधक केवल धर्म को ही उपादेय मानता है ।
संवेगवान साधक के कुछ और गुणों का उल्लेख करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसा साधक अपने दैनन्दिन संसार-व्यापार के निमित्त हुए स्वल्प सावद्यकर्म के लिये भी अत्यंत पश्चाताप करता है, सांसारिक अभ्युदय में कोई रुचि नहीं होने से वह उससे हर्षित नहीं होता है, तथा समस्त सांसारिकताओं से विरत हुआ वह साधक केवल धर्म को ही उपादेय मानता है। शेष सभी व्यक्ति व वस्तुएँ उसके लिये केवल ज्ञेय और हेय हो जाती हैं।