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________________ ५२ : पंचलिंगीप्रकरणम् इइ भावणासमेओ विरत्तकामो पयट्टमाणो। कम्मवसा विरएसुं बहुमाणपरो सदोसंन्नू ।। २७।। इति कर्मवशात् भावनासमेतः विरतेषु विरक्तकामः प्रवर्त्तमानः। बहुमानपरो स्वदोषज्ञः ।। २७।। इस भावना से युक्त, स्वदोषज्ञ, और विरक्तकाम। कर्मवशात् विषयरत भी रखता, विरतजनों के प्रति बहुमान ।। २७ ।। २७. उपर्युक्त भावना से युक्त तथा विषय भोगों से पराङ्मुख व्यक्ति यदि कर्म के उदय से विषयों में प्रवृत्ति करता भी है तो भी अपने दोषों (दुर्बलताओं) को जानता हुवा संयमियों (सर्वविरत साधु-साध्वियों तथा देशविरत श्रावक-श्राविकाओं) के प्रति बहुमान वाला होता है। इस गाथा में शास्त्रकार ऐसे व्यक्ति की भावनाओं का उल्लेख करते हैं जो अपनी इच्छाओं से विरत हो चुका है, भोग-विलास व इंद्रियविषयों में जिसकी रूचि समाप्त हो चुकी है फिर भी जो भोगावली कर्म के उदय से विषयों में प्रवृत्ति करता है। वे कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति अपने दोषों का ज्ञान रखता हुवा तथा अपनी असमर्थता पर अफसोस करनेवाला होकर स्वयं अविरत होते हुए भी विरतजनों के प्रति बहुमान की भावना रखनेवाला होता है। उसे न केवल अपनी कमजोरी का अहसास होता है अपितु वह उसके लिये पश्चाताप भी करता है।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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