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________________ ३६ : पंचलिंगीप्रकरणम् तो नरयवेयणाओ, तिरियगईसंभवा अणेगाओ। ता जरियजंतुणो मज्जियाए पाणोवमा विसया।। १८ ।। तस्मान्नरकवेदनाः तिर्यग्गतिसंभवाः (खलु) अनेकाः । ताः ज्वरितजन्तोः मार्जितायाः पानोपमाः विषयाः।। १८ ।। जैसे ज्वरित व्यक्ति को होता है, शीतल जल पीड़ादायक। वैसे ही विषयभोग भी, होते हैं नरकतिर्यग्गत्यादि दुःखदायक ।। १८ ।। १८. उस कारण से (आरंभ-समारंभ व महापरिग्रह करने से) नरक और तिर्यग्गति (पशु-पक्षी आदि भवों) में जन्म लेने के कारण होने वाली वेदनाएँ अनेक होती हैं। विषय वैसे ही होते हैं जैसे कि ज्वर से ग्रस्त व्यक्ति के लिये शीतल स्नान-जल। जैसे ज्वरित व्यक्ति को प्रारंभ में शीतल जल का स्नान सुखकर लगता है किंतु अन्ततः वही उसके लिये घातक हो जाता है। उसी प्रकार विषय भी भोगने में सुखकर प्रतील होते हैं किंतु परिणाम में दारुण दुःख देने वाले होते हैं। उनके फलस्वरूप होने वाले पापबन्ध से जीव को नरक की तीव्र यातनाएँ तथा तिर्यंच गति में उत्पत्ति आदि अनेक वेदनाएँ होती हैं। अथवा - जिसप्रकार ज्वरयुक्त व्यक्ति के लिये मार्पित अर्थात् मीठी-मधुर ओर शीतल मुखरोचक तथा पीने योग्य स्वादिष्ट पेय का भी परिणाम दारुण होता है, वैसे ही विषय आपाततः (प्रथम दृष्टया) अच्छे लगने पर भी विषय-भोग दारुण परिणाम वाले होते हैं। अतः हेय हैं, त्याज्य हैं।
SR No.023142
Book TitlePanchlingiprakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Beliya
PublisherVimal Sudarshan Chandra Parmarthik Jain Trust
Publication Year2006
Total Pages316
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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