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एकविंशतितमोऽध्यायः एते प्रयाणा: दृश्यन्ते येऽन्ये तीव्रभयादृते ।
प्रवासं शुक्रवच्चास्य विन्द्यादुत्पातिकं महत् ॥43॥ उक्त प्रयाण या भय के अतिरिक्त अन्य प्रयाण केतु के दिखलायी पड़ते हैं। शुक्र के समान केतु का प्रवास भी अत्यन्त उत्पात कारक होता है ।।43॥
धूमध्वजो धूमशिखो धूमाचि मतारकः । विकेशी विशिखश्चैव मयूरो विद्धमस्तकः ॥44॥ महाकेतुश्च श्वेतश्च केतुमान केतुवाहनः । उल्काशिखश्च जाज्वल्य: प्रज्वाली चाम्बरीषक: ॥45॥ हेन्द्रस्वरो हेन्द्रकेतुः शुक्लवासोऽन्यदन्तकः। विद्युत्समो विद्युल्लतो विद्युविद्युत्स्फुलिंगकः ।।46॥ चिक्षणो ह्यरुणो गुल्म: कबन्धो ज्वलितांकुरः । तालीश: कनकश्चैव विक्रान्तो मांसरोहितः ॥47॥ वैवस्वतो धूममाली महाचिश्च विधूमितः ।
दारुणा: केतवो ह्यते भय मिच्छन्ति दारुणम् ॥48॥ धूमध्वज, धूमशिख, धूमार्चि, धूमतारक, विकेशी, विशिख, मयूर, विद्धमस्तक, महाकेतु, श्वेत, केतुमान, केतुवाहन, उल्काशिख, जाज्वल्य, प्रज्वाली, अम्बरीषक, हेन्द्रस्वर, हेन्द्रकेतु, शुक्लवास, अन्यदन्तक, विद्य त्सम, विद्युल्लत, विद्युत्, विद्यु त्स्फुलिंगक, चिक्षण, अरुण, गुल्म, कबन्ध, ज्वलितांकुर, तालीश, कनक, विक्रान्त, मांसरोहित, वैवस्वत, धूममाली, महाचि, विधुमित और दारुण ये केतु दारुण भय उत्पन्न करने वाले हैं ।।44-48।।
जलदो जलकेतुश्च जलरेणुसमप्रभः ।
रुक्षो वा जलवान शोघ्र विप्राणां भयमादिशेत् ॥49॥ जलद, जलकेतु, जलरेणु, रूक्ष, जलवान् केतु शीघ्र ही ब्राह्मणों को भय का निर्देश करता है ।।49॥
शिखी शिखण्डी विमलो विनाशी धूमशासनः। विशिखान: शताचिश्च शालकेतुरलक्तकः ।।50॥ घृतो घृताचिश्च्यवनश्चिनपुष्पविदूषणः। विलम्बी विषमोऽग्निश्च वातको हसनः शिखी ॥51॥
1. प्रायेण मु० । 2. वाम्बरीषक: मु० । 3. घृणो मु० ।