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________________ 294 भद्रबाहुसंहिता विति तु यदा गत्वा पुनरेकोनविंशतिम् । आयात्यस्तमने काले वायव्यं वक्रमुच्यते ॥1940 जब शुक्र अस्तकाल में बीसवें नक्षत्र पर जाकर पुनः उन्नीसवें नक्षत्र पर लौट आता है तो उसे वायव्यवक्र कहते हैं ।।1941 वायुवेगसमां विन्द्यान्महीं वातसमाकुलाम्। क्लिष्टामल्पेन जलेन जनेनान्येन सर्वशः॥195॥ उक्त प्रकार के वायव्यवक्र में पृथ्वी वायु से परिपूर्ण हो जाती है तथा वायु का जोर अत्यधिक रहता है, अल्प वर्षा होने से पृथ्वी जल से परिपूर्ण हो जाती है तथा अन्य राष्ट्र के द्वारा प्रदेश आक्रान्त हो जाता है ।।1951 एकविंशति यदा गत्वा पुनरेकोनविंशतिम्। आयात्यस्तमने काले भस्मं तद् वक्रमुच्यते ॥196॥ अस्तकाल में यदि शुक्र इक्कीसवें नक्षत्र पर जाकर पुनः उन्नीसवें नक्षत्र पर लौट आता है तो उसे भस्मवक्र कहते हैं ।।196।। ग्रामाणां नगराणां च प्रजानां च दिशो दिशम । नरेन्द्राणां च चत्वारि भस्मभूतानि निदिशेत् ॥197॥ इस प्रकार के वक्र में ग्राम, नगर, प्रजा और राजा ये चारों भस्मभूत हो जाते हैं अर्थात् वह वक्र अपने नामानुसार फल देता है ।197॥ एतानि पंच वक्राणि कुरुते यानि भार्गवः । अतिचारं प्रवक्ष्यामि फलं यच्चास्य किचन ॥198॥ इस प्रकार शुक्र के पांच-पांच वक्रों का निरूपण किया गया है। अब अतिचार के किचित् फलादेश के साथ वर्णन किया जाता है ।198॥ यदातिक्रमते चारमुशना दारुणं फलम् । तदा सृजति लोकस्य दुःखक्लेशभयावहम् ॥199॥ यदि शुक्र अपनी गति का अतिक्रमण करे तो यह उसका अतिचार कहलाता है, इसका फल संसार को दुःख, क्लेश, भय आदि होता है ।।199॥ तदाऽन्योन्यं तु राजानो ग्रामांश्च नगराणि च । समयुक्तानि बाधन्ते नष्टधर्म-जयार्थिनः ॥200॥ 1. क्लिष्टां माल्येन जालेन मु० । 2. धावन्ति मु० । 3. नष्टकर्म मु०।
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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