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________________ 204 भद्रबाहुसंहिता नीचे सैन्य पड़ाव करने वाला राजा युद्ध की इच्छा करता है ।।17411 नीचनिविष्टभूपस्या नीचेभ्यो भयमादिशेत् । यथा दृष्टेषु देशेषु तज्ज्ञभ्य: प्राप्नुयाद् वधम् ॥175॥ नीचे स्थानों में स्थित रहने वाले राजा को नीचों से भय होता है। तथानुसार देखे गये देशों में उनसे वध प्राप्त होता है ।।175॥ यत् किंचित् परिहीनं स्यात् तत् पराजयलक्षणम् । परिवृद्ध च यद् किंचिद् दृश्यते विजयावहम् ॥176॥ जो कुछ भी कमी दिखलाई पड़े वह पराजय की सूचिका है और जो अधिकता दिखलाई पड़े वह विजय की सूचिका होती है ।।176॥ दुर्वर्णाश्च दुर्गन्धाश्च कुवेषा व्याधिनस्तथा। सेनाया ये नराश्च स्युः शस्त्रवध्या भवन्त्यथ ॥177॥ बुरे रंग वाले, दुर्गन्धित, कुवेषधारी और रोगी सेना के व्यक्ति शस्त्र के द्वारा वध्य होते हैं ।। 1770 यथाज्ञानप्ररूपेण राज्ञो जयपराजयः। विजय: सम्प्रयातस्य भद्रबाहुवचो यथा ॥178॥ इस प्रकार से भद्राबाहु स्वामी के वचनानुसार प्रयाण करने वाले राजा की जय-पराजय अवगत कर लेनी चाहिए ॥178।। परस्य विषयं लब्ध्वा अग्निदग्धा न लोपयेत् । परदारां न हिंस्येत् पशून वा पक्षिणस्तथा ॥179॥ शत्रु के देश को प्राप्त करके भी उसे अग्नि से नहीं जलाना चाहिए और न उस देश का लोप ही करना चाहिए । परस्त्री, पशु और पक्षियों की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥179॥ वसीकृतेषु मध्येषु न च शस्त्रं निपातयेत् । निरापराधचित्तानि नाददीत कदाचन ॥180॥ अधीन हुए देशों में शस्त्रपात प्रयोग नहीं करना चाहिए। निरपराधी व्यक्तियों को कभी भी कष्ट नहीं देना चाहिए ।।180।। 1. भूपस्य मु० । 2. अग्निकृतेषु मध्य स्तु शस्त्रानरं निधापयेत् ।
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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