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________________ I है और वह ज्ञान श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञानी सोचता है- यदि वह सुख वास्तविक सुख होता तो यह सुख इस जीवन में प्रतिदिन भोगते हैं । अतः इस सुख का संग्रह होकर सुख में वृद्धि होनी चाहिए थी, परन्तु सुख की सामग्री पर्याप्त संगृहीत होने पर भी सुख में लेशमात्र भी वृद्धि नहीं हुई, क्योंकि इन्द्रिय के विषयों से जो सुख मिलता है, वह अगले क्षण ही नष्ट होने लगता है। अतः क्षणिक है, विनाशी है, उत्पाद - व्यययुक्त है जबकि जीव को अविनाशी - शाश्वत सुख चाहिये, जो इससे नहीं मिलता है। विषय - सुख की प्राप्ति अपने से भिन्न पदार्थों के अधीन होती है, अतः यह पराधीनता में आबद्ध करता है । विषय - सुख के भोगी को विवश होकर दुःख भोगने ही पड़ते हैं । अतः इस सुख के साथ दुःख लगा ही रहता है। इस सुख के भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है। संसार में अशान्ति, अभाव, पराधीनता, चिन्ता, भय, संघर्ष - कलह, युद्ध, तनाव, दबाव, हीनभाव, अन्तर्द्वन्द्व, नीरसता, जड़ता आदि जितने भी दुःख हैं, उनके मूल में विषय - सुख ही है । अतः दुःख से सर्वथा मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय विषय-सुखों का त्याग ही है। इनके त्याग से राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय और हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह आदि पापमय दुष्प्रवृत्तियाँ स्वतः छूट जाती हैं। अतः विषय - कषाय व पापों का त्याग ही धर्म है। श्रुतज्ञान के इस निर्णय से सार यह निकलता है कि पदार्थ व पदार्थ से मिलने वाला सुख उत्पाद - व्यययुक्त है, उसका भोग दुःख रूप है, अतः त्याज्य है। इस सुख के त्याग से अक्षय, अखंड, अव्याबाध, अनन्त, ध्रुव सुख की उपलब्धि होती है। सुख के इस उत्पाद - व्यय - ध्रुव रूप त्रिपदी का ज्ञान ही सम्यक् श्रुतज्ञान है। इस श्रुतज्ञान से युक्त मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान से भी त्याग व संयम की ही भावना पुष्ट होती है । उत्पाद - व्यय - ध्रुव रूप त्रिपदी का ज्ञान किसी न किसी अंश में सभी प्राणियों को होता है। प्राणिमात्र को ध्रुवत्व - अविनाशित्व इष्ट है। किसी को भी व्यय या विनाश पसंद नहीं है। दूसरे शब्दों में इसी उत्पाद-व्ययध्रुवत्व के ज्ञान को अनित्य-नित्य का ज्ञान, क्षर-अक्षर का ज्ञान भी कह सकते हैं। जो 'उत्पाद - व्यय' रूप है, क्षर है, विनाशी है, अनित्य है, वह स्वभावतः किसी को भी पसन्द नहीं है और जो ध्रुव है, अविनाशी है, अक्षर रूप है, वह सभी को पसन्द है । इस अक्षर का, अविनाशी का, ध्रुवत्व का ज्ञानावरण कर्म 10
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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