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________________ इन्द्रिय और मन का जाना हुआ तथा देखा हुआ ज्ञान नहीं है, वह श्रुतज्ञान है। अर्थात् जिस ज्ञान में स्वभाव का, स्वरूप का, सिद्धत्व का ज्ञान निहित है, वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान प्राणिमात्र को सदैव, सर्वत्र रहता है। जैनागमों में जीव के स्वभाव, स्वरूप, सिद्धत्व का ज्ञान निहित है, अतः आगमों को श्रुतज्ञान निबद्ध कहा गया है। तात्पर्य यह है कि श्रुतज्ञान, श्रोत्रेन्द्रिय से संबंधित नहीं है क्योंकि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जिन जीवों के श्रोत्रेन्द्रिय (कान) नहीं है, ऐसे जीवों के भी श्रुतज्ञान (मिथ्यात्व युक्त होने से श्रुत अज्ञान) होना कहा गया है। मतिज्ञानजन्य इन्द्रिय विषयों के भोगों के सुख (आसक्ति व प्रलोभन) रूप विकारों से मुक्त होने के लिए ही श्रुतज्ञान की उपचार रूप में आवश्यकता होती है। मतिज्ञान का प्रभाव जन्य विशय सुख लोलुपता नहीं हो तो श्रुतज्ञान की आवश्यकता ही नहीं रहती है, इसीलिए श्रुतज्ञान को मतिपूर्वक कहा है। मतिज्ञान के प्रभाव का अन्त होते ही श्रुतज्ञान केवलज्ञान में लीन हो जाता है। श्रुतज्ञान सभी प्राणियों को सर्वदा, सर्वत्र एक समान होता है। इस ज्ञान में एकता होती है, भेद व भिन्नता नहीं होती। श्रुतज्ञान में जो भेद व भिन्नता दिखाई देती है वह श्रुतज्ञान के प्रभाव की न्यूनाधिकता की द्योतक है। श्रुतज्ञान जब पूर्ण प्रकट हो जाता है, तब केवलज्ञान हो जाता है। श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अन्तर केवल यह होता है कि जब यह ज्ञान माँग के रूप में होता है, अनुभव के रूप में नहीं होता तब श्रुतज्ञान कहा जाता है। अनुभव के रूप में नहीं होने से इसे परोक्ष ज्ञान कहा है और जब माँग की पूर्ति होकर श्रुतज्ञान पूर्ण अनुभव के बोध के रूप में प्रत्यक्ष हो जाता है, तब केवलज्ञान कहलाता है। संक्षेप में कहें तो स्वभाव-विभाव का, गुण-दोष का, हेय-उपादेय का ज्ञान ही श्रुतज्ञान है और स्वभाव के ज्ञान का प्रभाव प्राणी पर न होना अर्थात् आचरण में नहीं आना अनादर होना श्रुत ज्ञानावरण कर्म है। इसी से विभाव अर्थात् राग-द्वेष, विषय-कषाय आदि दोष उत्पन्न होते हैं, जिन्हें चारित्र मोहनीय कहा गया है। प्राणी जितना-जितना स्वभाव के अनुरूप आचरण करता है, उतना-उतना ही चारित्र मोहनीय अर्थात् कषाय क्षीण होता (घटता) जाता है, जिससे चारित्र गुण बढ़ता जाता है और गुणस्थान आरोहण होता जाता है। जब जीव अपने स्वाभाविक ज्ञान के अनुरूप ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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