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________________ ऋजुता, दयालुता, अमत्सरभाव और आरम्भ-परिग्रह की अल्पता। देवायु के बंध के कारण हैं- सरागसंयम, संयमासंयम, बालतप और अकाम निर्जरा। आयुबन्ध प्रायः वर्तमान जीवन का दो तिहाई भाग व्यतीत होने के पश्चात् होता है। इसका तात्पर्य है कि प्राणी की जैसी प्रवृत्ति प्रगाढ़ हो जाती है तथा वह प्रकृति या आदत का रूप धारण कर लेती है तो उसके अनुरूप ही वह आगे का भव धारण करता है। आयुष्य कर्म जीवन में एक बार ही बंधता है, जबकि गति का बंध निरन्तर होता रहता है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये चारों गति भी हैं और आयु भी, किन्तु नरकगति एवं तिर्यंचगति को जहाँ अशुभ एवं मनुष्य और देवगति को शुभ माना गया है वहाँ चार आयुओं में मात्र नरकायु को अशुभ तथा शेष तीन को शुभ स्वीकार किया गया है। आठ कर्मों की 148 प्रकृतियों में से तीन शुभ आयु ही ऐसी प्रकृतियाँ हैं, जिनकी स्थिति का बंध विशुद्धि भाव से होता है, शेष 145 प्रकृतियों का स्थिति बंध कषाय से होता है। नामकर्म शरीर एवं उससे सम्बद्ध नाना रूपों का सूचक तो है ही, साथ ही तीर्थंकर एवं यशःकीर्ति सदृश कर्मप्रकृतियों का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह शरीर, इन्द्रिय, मन, वचन तथा इनकी सक्रियता से सम्बन्धित है। इसमें गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, बंधन, संहनन, संस्थान आदि शरीर से सम्बद्ध प्रकृतियाँ भी परिगणित हैं तो आतप, उद्योत, उपघात, पराघात, आदेय, अनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, तीर्थंकर नामकर्म जैसी विशिष्ट प्रकृतियाँ भी सम्मिलित हैं। नामकर्म अघाती कर्म है। इसकी 36 पुद्गल विपाकी प्रकृतियों का सम्बन्ध शरीर विज्ञान से है, यथा- 5 शरीर, 3 अंगोपांग, 6 संहनन, 6 संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आतप, उद्योत, उपघात, पराघात, अगुरुलघु, निर्माण, शुभ-अशुभ, स्थिर–अस्थिर, प्रत्येक और साधारण। मन, वचन और तन की दुष्प्रवृत्तियों से अशुभ नामकर्म का तथा इनकी सद्प्रवृत्तियों से शुभ नामकर्म का बंध होता है। . . पुस्तक में नामकर्म की अनेक प्रकृतियों के लक्षणों का लेखक ने मौलिक रीति से प्रतिपादन एवं विवेचन किया है। तदनुसार क्रूरता एवं आमुख LXXIII
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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