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को मनोविज्ञान में उदात्तीकरण (Sublimation) की प्रक्रिया कहते हैं । इसमें सेवा आदि लोकोपकारी कार्य करने को स्थान दिया गया है जो जैन दर्शन में वर्णित संक्रमण की प्रक्रिया का अत्यल्प अंश मात्र है। इच्छाओं को भोगने से मिले सुख से नवीन इच्छाओं का, मानसिक ग्रन्थियों का निर्माण होता रहता है । फिर उन ग्रन्थियों का भोगने के रूप में उदय होता है। इस प्रकार मानसिक ग्रन्थियों का निर्माण और उदय का चक्र बराबर चलता ही रहता है। इस चक्र के भेदन का आधुनिक मनोविज्ञान में अभी तक कोई उपाय नहीं खोजा जा सका है, जबकि जैन दर्शन में प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त में मानसिक ग्रन्थियों के दमन किए बिना ही उनके विजय, विलय व क्षय का बड़ा ही सरल, सुगम, सुन्दर उपाय बताया है। जैन धर्म में इस बात पर बहुत जोर दिया गया है कि मानव-जीवन भोगेच्छाओं की पूर्ति करने के लिए नहीं मिला है, मानव जीवन तो भोगों पर विजय पाने के लिए मिला है।
जैन दर्शन में मानव- व - जीवन की सार्थकता मुक्ति-प्राप्ति को बताया है । मुक्ति का अर्थ बन्धन रहित होना, स्वाधीन होना है। जैन दर्शन में न केवल साध्य में ही स्वाधीनता निरूपित है, अपितु साधना में भी पूर्ण स्वाधीनता है। जैन दर्शन की आधारशिला ही स्वाधीनता है। अर्थात् साधक का मुक्ति प्राप्ति रूप साध्य भी 'स्वाधीनता' है और उस स्वाधीनता को प्राप्त करने में अर्थात् कमों को क्षय करने में भी साधक स्वाधीन है।
जैन दर्शन में कर्मक्षय कर मुक्ति रूप साध्य की प्राप्ति के दो प्रमुख साधन बताये हैं- 1. संवर और 2. निर्जरा । संवर है नये कर्म न बांधना अर्थात् कषाय युक्त प्रवृत्ति न करना । दूसरे शब्दों में विषय भोगों का त्याग करना और निर्जरा है पूर्व में बंधे कर्मों को बिना फल भोगे क्षय करना । अर्थात् ध्यान, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि तपों द्वारा मोह व कषाय को गलाना, साथ ही पुण्य कार्य रूप सेवा द्वारा पाप कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग का अपकर्षण करना । जैन धर्म में संवर और निर्जरा रूप साधना करने में मानव मात्र को पूर्ण समर्थ और स्वाधीन माना है । इसमें वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, जाति, अवस्था, देश, काल आदि को कहीं भी बाधक नहीं माना गया है ।
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प्राक्कथन