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________________ बांधे हैं, परन्तु वर्तमान में वह सत्कर्म कर रहा है, तो वह अपने बुरे कर्मों के दुःखद फल से छुटकारा पा लेता है। दूसरे शब्दों में कहें तो हम अपने वर्तमान जीवन काल का सदुपयोग-दुरुपयोग कर अपने भाग्य को सौभाग्य या दुर्भाग्य में बदल सकते हैं। इसकी हमें पूर्ण स्वाधीनता है तथा हम में सामर्थ्य भी है। इसे उदाहरण से समझें 'क' एक व्यापारी है। 'ख' उसका प्रमुख ग्राहक है । 'क' को उससे विशेष लाभ होता है। 'क' के लोभ की पूर्ति होती है तथा 'ख' 'क' के व्यवहार की बहुत प्रशंसा करता है जिससे 'क' के मान की पुष्टि होती है। अतः 'क' का 'ख' के साथ लोभ और मान रूप घनिष्ठ संबंध या बंध है परन्तु 'क' ने 'ख' को लोभ वश असली माल के बजाय नकली माल दे दिया । इस धोखे का जब 'ख' को पता चला तो वह रुष्ट हो गया और उस पर 'क' की जो रकम उधार थी उसने उसे देने से मना कर दिया । गाली-गलोच कर 'क' का अपमान कर दिया। इससे 'क' को क्रोध आया । अब 'क' का 'ख' के प्रति लोभ व मान रूप जो राग का संबंध था वह क्रोध व द्वेष में रूपान्तरित - संक्रमित हो गया । नियम - 1. प्रकृति संक्रमण बध्यमान प्रकृति में ही होता है। 2. संक्रमण सजातीय प्रकृतियों में ही होता है । (7) उदीरणा करण- सत्ता में स्थित कर्म का किसी निमित्त अथवा प्रयत्न विशेष से फल देने अर्थात् उदय के सम्मुख करने के लिए स्फुरणा होना उदीरणा करण है। जिस प्रकार शरीर में स्थित कोई विकार कालान्तर में रोग के रूप में फल देने वाला है । टीका लगवाकर या दवा आदि के प्रयत्न द्वारा पहले ही उस विकार को उभार कर फल भोग लेने से उस विकार से मुक्ति मिल जाती है। उदाहरणार्थ- चेचक का टीका लगाने से चेचक का विकार समय से पहले ही अपना फल दे देता है । भविष्य में उससे छुटकारा मिल जाता है । वमन - रेचन (उल्टी या दस्त) द्वारा किए गए उपचार में शरीर का विकार निकाल कर रोग से समय से पूर्व ही मुक्ति पाई जा सकती है। इसी प्रकार अन्तःस्तल में स्थित कर्म की ग्रंथियों (बंधनों) को भी ध्यान आदि तप के प्रयत्नपूर्वक समय के पूर्व उदय में लाकर फल भोगा जा सकता है। वैसे XXXVI प्राक्कथन
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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