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________________ है, जो समस्त दुःखों का हेतु है। दुःख स्वभाव से ही किसी को भी इष्ट नहीं है। अतः प्रत्येक परिस्थिति का सदुपयोग आत्म-विकास की साधना में करना है। इसका उपयोग सुखभोग में करना घोर असाधन व दुःख का हेतु है, जो सभी के लिये त्याज्य है। वर्तमान युग में भौतिक विकास विषय-भोगों का वर्धन करने वाली वस्तुओं की उपलब्धि व संग्रह को माना जाता है। जिस व्यक्ति, समाज एवं देश के पास भोग्य वस्तुओं की जितनी प्रचुरता है वह उतना ही अधिक भौतिक दृष्टि से संपन्न माना जाता है, परन्तु यह धारणा सही नहीं है, कारण कि विकास उसे कहा जाता है जिससे प्राणी का हित हो। प्राणी का हित प्राप्त परिस्थितियों के सदुपयोग में है अथवा जीवन की नैसर्गिक आवश्यकताओं यथा भोजन, वस्त्र, पात्र, मकान, शिक्षा व चिकित्सा की पूर्ति करने में है, भोग भोगने में नहीं है। कारण कि भोग का सुख शक्तिहीनता, पराधीनता, जड़ता व अभाव में आबद्ध करने वाला है तथा स्वार्थपरता, हृदय हीनता, निर्दयता, अभाव, चिन्ता, द्वन्द्व, संघर्ष आदि समस्त दुःखों व दोषों को पैदा करने वाला है। विश्व में कोई दुःख व बुराई ऐसी नहीं है जिसका कारण विषय-वासना जन्य सुख न हो। भोग की सुख-लोलुपता में आबद्ध होने से भौतिक अवनति ही होती है। यह नियम है कि जो मानव अपने व्यक्तिगत सुख को महत्त्व देता है वह परिवार के लिये अनुपयोगी होता है, जो अपने परिवार के सुख में संतुष्ट होता है वह समाज के लिये अनुपयोगी होता है। इसी प्रकार जो अपने वर्ग, देश, समाज, सम्प्रदाय जाति की उन्नति को ही उन्नति मानता है वह दूसरे वर्ग, प्रदेश, समाज आदि के लिये अहितकर होता है, यह भौतिक अवनति है। यह नियम है कि जो दूसरों के लिये अहितकर होता है उससे उसका भी अहित ही होता है। इसी प्रकार जो सभी के हित में रत रहता है उसका हित अवश्य होता है। यह भौतिक उन्नति है। सर्व हितकारी दृष्टि से नैसर्गिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना भौतिक उन्नति है और अपने व्यक्तिगत, सुख के लिये वस्तुओं का संग्रह करना भौतिक अवनति है। तात्पर्य यह है कि भौतिक विकास भोग-सामग्री के उपार्जन व वृद्धि में नहीं है अपितु सर्व हितकारी प्रवृत्ति में है, कर्तव्यपरायणता में है। निर्दोषता आध्यात्मिक विकास है और कर्तव्य परायणता व सद्प्रवृत्ति भौतिक विकास है। 236 आत्म-विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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