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________________ घाती कर्मों के उदय से आत्म-गुणों का घात-हास होता है। इसके विपरीत कषाय आदि दोषों में कमी होने से, आत्मा की पवित्रता से, पुण्य से, घाती कर्मों का क्षयोपशम, क्षय व उपशम होता है जिससे आत्म-गुण प्रकट होते हैं, अर्थात् आत्म-विकास होता है। ___ भौतिक विकास-हास का सम्बन्ध अघाती कर्मों से हैं। अघाती कर्मों की पुण्य प्रकृतियाँ भौतिक विकास व सामर्थ्य की एवं पाप प्रकृतियाँ भौतिक -हास की द्योतक हैं। अघाती कर्मों की पुण्य व पाप प्रकृतियों में जातीय एकता है। ये सभी शरीर, इन्द्रिय आदि भौतिक उपलब्धियों के रूप में उदय होती हैं। इनमें भिन्नता तरतमता की ही है। उच्च स्तर की प्राप्त भौतिक उपलब्धियों को पुण्य प्रकृतियाँ और उनसे निम्न स्तर की भौतिक उपलळि गयों को पाप प्रकृतियाँ कहा गया है। जैसे इन्द्रियों की उपलब्धि को ही लें। जो जीव एकेन्द्रिय हैं उन्हें भी एक स्पर्श इन्द्रिय की भौतिक उपलब्धि है। यही जीव एकेन्द्रिय से विकास कर द्वीन्द्रिय हो गया तब इसे स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों की उपलब्धि हुई। उसका यह द्वीन्द्रिय होना आत्म-विकास का एवं अनंत पुण्य वृद्धि का सूचक है। इसी प्रकार उसका श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय होना क्रमशः विशुद्धिभाव की व आत्म-विकास की वृद्धि की एवं उत्तरोत्तर अनंत-अनंत गुणे पुण्य की वृद्धि का सूचक है। कारण कि स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँचों इन्द्रियों की उपलब्धि स्पर्शनेन्द्रिय- मतिज्ञानावरण आदि पाँचों मतिज्ञानावरण कर्मों के भेदों के क्षयोपशम से होती है। अतः इनमें से किसी भी इन्द्रिय का मिलना पुण्य का फल है। परन्तु पंचेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय होना क्रमशः संक्लेशभाव का,आत्म-हरास का एवं उत्तरोत्तर अनंत अनंत गुणे पाप की वृद्धि का.. सूचक है। इस प्रकार एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की उपलब्धि होने में विशुद्धिभाव और इससे विपरीत क्रम में संक्लेश हेतु हैं। इसी प्रकार यही तथ्य संहनन, संस्थान आदि अन्य पुण्य-पाप की प्रकृतियों पर भी चरितार्थ होता है। अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियाँ भौतिक उपलब्धियों में एवं आध्यात्मिक विकास में कमी की सूचक हैं। तात्पर्य यह है कि अघाती कर्मों की प्रकृतियाँ भौतिक उपलब्धियों की सूचक हैं। इन प्रकृतियों की सत्ता व उदय जीव के लिए किंचित् भी आत्म-विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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