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________________ वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण शरीर, अंगोपांगत्रिक (औदारिक अंगोपांग, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग) वज्र ऋषभनाराच-सहनन, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थंकर, निर्माण। तिर्यंच आयु, शुभ वर्णचतुष्क (वर्ण, गंध,रस, स्पर्श) ये 37 प्रकृतियाँ अघाती कर्मों की एवं पंचेन्द्रिय जाति और शुभ विहायोगति ये पुण्य की 42 कर्म प्रकृतियाँ हैं। पहले संस्थान व संहनन को छोड़कर 5 संस्थान तथा 5 संहनन, अशुभ विहायोगति, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, असातावेदनीय, नीचगोत्र, उपघात, एकेन्द्रिय, विकलत्रिक (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु), स्थावर दशक (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति) अशुभ वर्णचतुष्क (अशुभ वर्ण, गंध,रस, स्पर्श) ये 37 प्रकृतियाँ अघाती कर्मों की एवं घाती कर्मों की 45 प्रकृतियाँ (ज्ञानावरण 5, दर्शनावरण 9, मोहनीय 26, अंतराय 5) ये 82 पाप की प्रकृतियाँ हैं। स्थितिबंध- जीव के साथ कर्मों के रहने की मर्यादा को स्थितिबंध कहते हैं। पुण्य-पाप कर्मों का स्थिति बंध इस प्रकार हैं सव्वाण वि जिट्ठठिई असुभा जं साइकिलेणं। इयस वियोठिओ पुण मुत्तुं नरअमरतिरियाउं।। -पंचमकर्म ग्रन्थ, 52 सव्वदिट्ठीणमुक्कस्सओ दुउक्कस्य संकिलेरोण। विवरीदेण जटण्णो आउगतियवज्जियाणंतु।। -गोम्मटसार कर्मकाण्ड,134 अर्थ-मनुष्य, देव और तिर्यंच आयु को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अति संक्लेश परिणामों में बंधने के कारण अशुभ है। इनकी जघन्य स्थिति का बंध विशुद्धि द्वारा होता है। तीन आयु का उत्कृष्ट स्थिति बंध | विशुद्धि परिणामों से और जघन्य स्थिति बंध संक्लेश परिणामों से होता है। अनुभाग बंध- कर्म की फलदान शक्ति को अनुभाग कहते हैं। उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग के सम्बन्ध में कहा है बादालं तु पयत्था विमोटिगुणमुकडस्य तिव्वाओ। बासीदि अप्पमत्था मिच्छुक्कडकिलिइक्य।। -गोम्मटसारकर्मकाण्ड, 164 कर्म सिद्धान्त और पुण्य-पाप 223
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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