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________________ औदार्य-उदारता दान गुण का, निष्कामता निर्लोभता (ऐश्वर्य-सम्पन्न्ता) लाभ का, निर्ममता, निर्विकारता-ऋजुता-भोग गुण का, माधुर्य मृदुताउपभोग गुण का और दोषों को दूर करने, त्यागने का सामर्थ्य वीर्य गुण का सूचक है। अन्तरायकर्म का क्षय और सिद्धावस्था ____ वर्तमान काल में बहुत से विद्वान् सिद्ध भगवान् में दान, लाभ आदि लब्धियाँ नहीं मानते हैं, परन्तु श्री वीरसेनाचार्य ने धवला पुस्तक 7 गाथा 11 पृ. 14-15 में सिद्धों में पाँच लब्धियाँ मानी हैं विरियोवभोगे-भोगे दाणे लाभेजदुयदो विरघं। पंचविठ लद्धिजुत्तो तक्कम्मरवया हवे सिहो।। __ जिस अंतराय कर्म के उदय से जीव के वीर्य, उपभोग, भोग, दान और लाभ में विघ्न उत्पन्न होता है, उसी कर्म के क्षय से सिद्ध पंच लब्धि (दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य) से युक्त होते हैं। अंतराय कर्म क्षय से तेहरवें गुणस्थान में दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये जीव के पाँचों क्षायिक गण प्रकट होते हैं। ये गुण जीव के स्वभाव हैं अतः निजगुण हैं, किसी बाहरी पदार्थ पर निर्भर नहीं हैं और न बाहरी जगत् से सम्बन्धित हैं। अतः सिद्ध होने पर ये गुण असीम, अनन्त रूप से प्रकट होते हैं। मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्म में पारस्परिक सम्बन्ध सर्व कर्मों का बंध मोहनीय कर्म से ही होता है। कारण कि बिना राग-द्वेष एवं विषय- कषाय के सेवन के किसी भी कर्म का बंध नहीं होता है। अतः अन्तराय का बंध भी मोह से ही होता है। ____ मोह के उदय से सुख के भोगों की इच्छा उत्पन्न होती है। जिससे विषय सुख की पूर्ति के लिये स्वार्थपरता, विषय सामग्री के प्रति ममता उत्पन्न होती है। स्वार्थपरता और ममता जीव की उदारता का अपहरण कर लेती है जिससे दान देने की भावना उत्पन्न नहीं होती, यह दानान्तराय है। मोह से आसक्ति पैदा होती है जिससे आत्मा की वृत्ति बहिर्मुखी हो जाती है। बहिर्मुखी वृत्ति से जीव निज के शान्त, अखंड, असीम व अनन्त रस के भोग से वंचित तथा विमुख हो जाता है, यह भोगान्तराय है। आसक्ति से बहिर्मुखी वृत्ति निरन्तर बनी रहती है जो अंतर्मुखी वृत्ति या 218 अन्तराय कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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