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________________ कर्म के क्षयोपशम से मानना भयंकर भूल है। ये सब अवस्थाएँ अन्तराय कर्म के उदय की द्योतक हैं। कारण कि अपने सुख के लिए किसी से कुछ भी पाने की इच्छा करना औदार्य अर्थात् दानगुण का घात करना है, दानान्तराय का उदय है। वस्तुओं की प्राप्ति की कामना, अभाव की, दरिद्रता की द्योतक है, ऐश्वर्य गुण की घातक है, लाभान्तराय का उदय है। विषय-भोग के सुख की इच्छा आत्मा के निज स्वभाव के सुख के अनुभव की घातक है, स्वाभाविक भोग-उपभोग के सुख से विमुख करती है, अतः भोगान्तराय- उपभोगान्तराय के उदय की सूचक है। सांसारिक दान, लाभ, भोग, उपभोग की पूर्ति के लिए प्रवृत्ति, प्रयत्न, पुरुषार्थ करना अपने सामर्थ्य-वीर्य का दुरुपयोग करना है, इससे सामर्थ्य का व्यय होता है अतः जो सामर्थ्य दोषों के त्यागने में लगना चाहिए वह सामर्थ्य या वीर्य दोषों की वृद्धि में लग रहा है। यह वास्तविक सामर्थ्य व पुरुषार्थ से विमुख कर रहा है, अतः वीर्यान्तराय है। अन्तराय कर्म घातिकर्म है। घातिकर्म होने से आत्मा के गुणों के घात से सम्बन्धित है। आत्मिक गुणों का घात दोषों से, विकार से, विभाव से होता है अर्थात् औदयिक भाव से होता है। घातिकर्मों में कमी या क्षय, क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक इन तीनों भावों से होता है। इन तीनों भावों से पापों की, दोषों की, विकारों की उत्पत्ति एवं इनकी सामग्री की प्राप्ति नहीं होती है, अपितु विकारों का नाश होता है। क्षायोपशमिक भाव से दोषों में आंशिक कमी होती है। औपशमिक भाव से दोषों का उपशम होता है और क्षायिकभाव से दोष सर्वथा क्षय होते हैं और गुण प्रकट होते हैं। अन्तराय के उदय से दोष व विकार उत्पन्न होते हैं और क्षयोपशम से दोषों में कमी होती है जिससे आंशिक गुण प्रकट होता है तथा क्षायिकभाव से दोषों का उन्मूलन हो जाता है। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य आत्मा के गुण हैं। इन गुणों से विमुख करने वाला अन्तराय कर्म है। प्राणी चारित्र मोहनीय-कषाय के उदय के कारण इन आत्मिक गुणों से विमुख होता है। उदारता का गुण दान है, कामना रहित होने से, अभाव रहित होना लाभ है, ऐश्वर्य है। ममता रहित होने से निर्विकारता-निर्दोषता से मिलने वाले आत्मिक सुख का अनुभव भोग है। अहं भाव रहित होने से निज स्वरूप के उस सुख का 216 अन्तराय कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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