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उदय से मानना तो किसी को भी इष्ट नहीं हो सकता और यदि कुछ के मतानुसार घर-संपत्ति की प्राप्ति को लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से माना जाय, पांचों इन्द्रियों के विषय-भोगों की सामग्री कार, हेलिकॉप्टर आदि वाहन, मकान, अन्न, फल-फूल आदि खाद्य पदार्थ, आभूषण, रेडियो, टेलीविजन आदि वस्तुओं की प्राप्ति को भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्म के क्षयोपशम से माना जाय तो बारहवें क्षीण मोहनीय गुणस्थान में यथाख्यात चारित्र में लाभान्तराय, भोगान्तराय और उपभागान्तराय कर्म का उत्कृष्ट क्षयोपशम होता है । अतः यथाख्यात चारित्रवान साधक के इन सब पदार्थों की सबसे अधिक मात्रा में उपलब्धि होनी चाहिए, परन्तु इनके पास इन सब वस्तुओं का नितान्त अभाव होता है । अतः धन-संपत्ति आदि वस्तुओं की उत्पत्ति अन्तराय कर्म के क्षय से मानना कर्म सिद्धान्त तथा आगम सम्मत नहीं है। धन के अभाव को गरीबी मानना और इस गरीबी के कारण के साथ पूर्वजन्मकृत पाप कर्म का अविनाभाव सम्बन्ध मानना वीतरागियों के भयंकर पाप कर्म का उदय मानना होगा, जो सर्वथा अनुचित है । अतः गरीबी- अमीरी का, वस्तुओं की प्राप्ति का, अन्तराय कर्म के उदय, क्षयोपशम व क्षय से किंचित् भी सम्बन्ध नहीं है
यदि वस्तुओं की प्राप्ति को लाभान्तराय के क्षयोपषम का फल माना जाय, वस्तुओं के अभाव को लाभान्तराय का उदय माना जाय तो जब तक संसार की समस्त वस्तुओं की प्राप्ति नहीं होती उनमें से एक भी वस्तु का अभाव है तब तक लाभान्तराय का उदय न होगा। संसार की समस्त वस्तुएँ किसी एक ही व्यक्ति को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती । अतः अंतराय कर्म का क्षय भी नहीं होगा। अतः वस्तुओं की प्राप्ति को अंतराय कर्म के क्षयोपषम से मानना भ्रान्ति है ।
यदि इन्द्रियों के भोग-उपभोग की वस्तुओं या सामग्री की प्राप्ति को अन्तराय कर्म के क्षयोपशम का फल माना जाय तो मोहनीय कर्म के बंध तथा उदय की न्यूनाधिकता के साथ अन्तराय कर्म की पांचों प्रकृतियों के बंध - उदय में भी न्यूनाधिकता (क्षयोपशम) सदैव होती रहती है । अतः मोहनीय कर्म तथा अन्तराय कर्म के क्षयोपशम (न्यूनाधिकता ) के साथ बाह्य वस्तु एवं भोग्य सामग्री में सदैव तत्काल घट-बढ़ होती रहनी चाहिए, परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता है। इससे यह फलित होता है कि इन वस्तुओं व
अन्तराय कर्म
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