SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लाभान्तराय एवं अनन्त लाभ सम्पन्न वहीं है जो अभाव रहित है । अभाव दरिद्रता का द्योतक है। अभाव का अनुभव तभी होता है जब कुछ पाने की कामना हो और उसकी प्राप्ति न हो । वस्तु की प्राप्ति श्रम शक्ति व काल पर निर्भर करती है। अतः कामना पूर्ति तत्काल नहीं होती है और जब तक कामना की पूर्ति नहीं होती तब तक कामना अपूर्तिजन्य अभाव का अनुभव होता है। जो दरिद्रता का ही रूप है। अतः कामना अपूर्ति की अवस्थाओं में दरिद्रता व अभाव ( अलाभ) का दुःख भोगना ही पड़ता है। यही लाभान्तराय है। यह सर्वविदित है कि सब कामनाओं की पूर्ति किसी की कभी भी नहीं होती, केवल कुछ कामनाओं की ही पूर्ति होती है। अतः मानव मात्र को कामना - अपूर्ति जन्य अभाव (कमी - दारिद्रय) का दुःख सदा बना ही रहता है । यही नहीं, जिस कामना की पूर्ति हो जाती है, उससे जो सुख मिलता है, वह सुख भी प्रतिक्षण क्षीण होता हुआ अन्त में नीरसता में बदल जाता है। इस प्रकार कामना पूर्ति से सुख पाने रूप जिस उद्देश्य की सिद्धि हुई, उस सिद्धि का मिलना न मिलने के समान हो जाता है । कामनापूर्ति जनित रस या सुख नीरसता में बदलता ही है। नीरसता किसी को भी पसन्द नहीं है । अतः नीरसता मिटाने के लिए नवीन कामना की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार कामना पूर्ति के साथ नवीन कामना की उत्पत्ति जुड़ी हुई है अर्थात् कामना उत्पत्ति के साथ अभाव, दरिद्रता आदि दुःख जुड़े हुए हैं। तात्पर्य यह है कि चाहे कामना की उत्पत्ति हो, चाहे कामना की अपूर्ति हो, चाहे कामना की पूर्ति हो सभी अवस्थाओं में अभाव व दरिद्रता जुड़ी हुई है । अतः कामना के त्याग से ही दरिद्रता का अंत संभव है। दरिद्रता का अंत ही समृद्धि का, सम्पन्नता का सूचक है। कारण कि कामना न रहने पर कुछ भी अभाव शेष नहीं रहता है, यह ही पाना शेष नहीं रहना है। 'पाना' शेष न रहना ही सच्ची समृद्धि व सम्पन्नता है। पूर्ण रूप से कामना रहित होना 'वीतराग' होना है। अतः वीतरागता से ही सच्ची समृद्धि व सम्पन्नता की सम्पूर्णता है, जिसका अंत कभी नहीं होता है अर्थात् जहाँ वीतरागता है वहाँ अनन्त समृद्धि है, अनन्त संपन्नता, अनंत ऐश्वर्य, अनन्त वैभव है । इसे ही अनन्त लाभ कहा है । अन्तराय कर्म 207
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy