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________________ रहता है। अतः अन्तराय कर्म के पाँच परीषह होने चाहिए। परन्तु एक ही परीषह कहा है, जो उपयुक्त ही है। कारण कि दान, भोग, उपभोग आदि की इच्छा का होना, परन्तु उनकी पूर्ति न होना अलाभ है। यहाँ 'अलाभ' शब्द अन्तर्दीपक है जो पांचों अन्तरायों के लिए लागू होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि अलाभ या अभाव ही अन्तराय कर्म के उदय का सूचक दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य जीव की स्वाभाविक उपलब्धियाँ एवं गुण हैं। इनकी पूर्णता में विघ्न होना अथवा इनका अलाभ होना ही अन्तराय कर्म है। दान गुण उदारता का, लाभ गुण निर्लोभता से प्राप्त अभावरहितता का, भोग गुण स्वाधीनता के अखण्ड सुख की उपलब्धि का, उपभोग गुण स्वाभाविक आत्मीयता एवं नितनूतन अनन्त सुख के उपभोग की उपलब्धि का तथा वीर्य गुण आत्मसामर्थ्य की प्राप्ति का सूचक है। इन समस्त स्वाभाविक गुणों में बाधा उत्पन्न होना अन्तराय कर्म है। दानादि गुणों में बाधा उत्पन्न होना अन्तराय है, स्वार्थपरता से दानान्तराय का, कामना से लाभान्तराय का, ममता से भोगान्तराय का, तादात्म्य एवं-अहंभाव से उपभोगान्तराय का और कर्तृत्व भाव से वीर्यान्तराय का बंध होता है। भगवती सूत्र में अन्तराय कर्म के बंध का निरूपण करते हुए कहा है गोयमा? दाणंतराएणं लाभंतराएणं भोगतराएणं उवभोगंतराएणं वीरियंतराएणं अन्तराइयकम्मायतीरप्पयोगनामए कम्मरस उदएणं अन्तराइयकम्मायवीरप्पओगबंधे। -भगवतीमूत्र, शतक 8, उद्देशक सूत्रा ___अर्थात् दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय एवं वीर्यान्तराय के रूप कर्म का बंध होता है। तत्त्वार्थ सूत्र में विघ्न उत्पन्न करने को अन्तराय कर्म का बंध हेतु कहा है विघ्नकरणामन्तरायस्य।-तत्त्वार्थसूत्र, 6.27 __ इन विघ्नों का उल्लेख ऊपर स्वार्थपरता, कामना, ममता, आसक्ति एवं कर्तृत्वभाव के रूप में किया गया है। यहाँ पर दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य का सम्यक् स्वरूप समझने से ही ज्ञात हो सकेगा कि ये किस प्रकार केवली की उलब्धियाँ है, इन पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है 204 अन्तराय कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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