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________________ जिन कर्मों का कषाय के घटने-बढ़ने से उनके स्थिति एवं अनुभाग में घट-बढ़, अपकर्षण- उत्कर्षण (अपवर्तन-उद्वर्तन) हो, परन्तु उनका अन्य सजातीय कर्म-प्रकृतियों में रूपान्तरण (संक्रमण) न हो तथा उदय भी न हो, कर्म की ऐसी अवस्था को निधत्तिकरण कहते हैं । नियम- निधत्तकरण में संक्रमण एवं उदय (उदीरणा) नहीं होते हैं । (3) निकाचित करण- कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय ( उदीरणा), संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण आदि कुछ भी नहीं हो, कर्म जैसा बंधा है उसी अवस्था में रहे, उसे निकाचित करण कहते हैं। (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा 440) यथा किसी रोग के विषाणु शरीर के भीतर प्रवेश कर गये हों फिर वे ज्यों के त्यों विद्यमान रहें, उनमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हो, उसी तरह जिस बंधे हुए सत्ता में स्थित कर्म में उत्कर्षण आदि से कुछ भी परिवर्तन नहीं हो, कर्म की इस अवस्था को निकाचित करण कहते हैं । जैसे आगामी भव का बंधा हुआ आयु कर्म जो सत्ता में स्थित है उसमें अगले भव में उदय के पूर्व उत्कर्षण आदि किसी करण का नहीं होना निकाचित करण है । नियम- निकाचित करण में उदय - उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण नहीं होते हैं । निधत्तकरण और निकाचित करण ये दोनों ही करण अपना कुछ भी प्रभाव नहीं दिखाते हैं अर्थात् जीव को सुख-दुःख, हानि-लाभ नहीं पहुंचाते हैं, अतः निष्प्रयोजन हैं। यही कारण है कि कम्मपयडि, पंचसंग्रह आदि कर्म-सिद्धान्त के ग्रंथों में जहाँ संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, उपशम आदि करणों का विशद वर्णन है और टीकाकारों ने भी इनका विस्तार से विवेचन किया है, परन्तु निधति और निकाचित इन दोनों करणों का विशेष विवेचन न करके केवल इतना ही कहा है कि निधत्तिकरण में उदय व संक्रमण नहीं होता और निकाचित करण में उदीरणा, उदय, संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन आदि करण नहीं होते हैं । (4) उद्वर्तना करण - जिस क्रिया या प्रवृत्ति से पूर्व में बन्धे हुए कर्म की स्थिति और रस में वृद्धि होती है, उसे उद्वर्तना करण कहते हैं । ऐसा पूर्वबद्ध कर्म - प्रकृति के अनुरूप पहले से अधिक प्रवृत्ति करने तथा प्राक्कथन XXVII
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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