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________________ धनी हूँ: शरीर में तद्द्रूप होने से मैं रूपवान हूँ, मैं सुन्दर हूँ, मैं बलवान् हूँ, मैं बूढ़ा हूँ, मैं रोगी हूँ आदि मानता है। इसी प्रकार तप, ज्ञान, सेवा, विद्या, बुद्धि आदि से तद्द्रूप होकर मैं तपस्वी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मैं सेवक हूँ, मैं विद्वान् हूँ, मैं बुद्धिमान हूँ आदि मानता है । यह नियम है कि स्वभाव स्वतः प्राप्त होता है । स्वभाव किसी की देन नहीं होता, वह अपने से भिन्न नहीं होता है। अतः स्वभाव का अभिमान नहीं होता है। जीव जिसको अपनी देन मानता है उसी से तद्रूप होकर, तादात्म्य कर अहंभाव उत्पन्न करता है आशय यह है कि अहंभाव की उत्पत्ति अपने से भिन्न पर पदार्थ के तादात्म्य या पर के आश्रय से होती है। अतः अहंभाव पराश्रय, पराधीनता का सूचक है। दूसरे शब्दों में कहें तो जहाँ पराधीनता है वहाँ ही अहंभाव है, नीच गोत्र का उदय है। पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि तिर्यंच गति के जीव खाने-पीने-रहने आदि जीवन-यापन के लिए प्रकृति के आधीनपराधीन होते हैं और नारकीय जीवन पर - पदार्थों के आधीन होता है, भोगमय ही होता है। ये उदयमान कर्मों में परिवर्तन करने में अर्थात् अपने को भोग भोगने से रोकने में असमर्थ होते हैं, अतः ये पराधीनता, पराश्रय से मुक्त नहीं हो सकते। अतः तिर्यंच और नरक गति के सभी जीवों के सदैव नीच गोत्र का उदय कहा गया है। देवता जीवन-यापन में स्वतंत्र है तथा साधुओं के जीवन में परतंत्रता नहीं है। अतः इनके सदैव उच्च गोत्र का ही उदय कहा गया है। मनुष्य के जीवन में परतन्त्रता और स्वतंत्रता दोनों सम्भव है । अतः मनुष्य के नीच गोत्र और उच्च गोत्र दोनों का उदय कहा है। वीतराग केवली के अहंभाव का, मान कषाय का सर्वांश में क्षय हो जाता है, वे पूर्ण स्वाधीन होते है । अतः उनके उत्कृष्ट उच्च गोत्र का उदय होता है। गोत्रकर्म का अनुभाव (फल) प्रश्न (क) उच्चागोयस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव । पोग्गल - परिणामं पप्प कइविहे अणुभावे पण्णत्ते ।। उत्तर- गोयमा ! उच्चागोयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प अट्ठविहे अणुभावे पण्णत्ते । तंजा 1. जाइविट्ठिया, 2. कुलविमिट्ठया, 3. बलविसिद्ध्या, 4. रूवविसिट्ठया 5. तवविसिट्ठया, 6. सुयविसिट्ठया, 7. लाभविसिद्ध्या, 8. इस्सस्थिविसिद्ध्या गोत्र कर्म 195
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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