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________________ दूसरे, केवलज्ञान के द्वारा विषय किये गये सभी अर्थों में छद्मस्थों के ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं होते हैं। इसीलिए यदि छद्मस्थों को कोई अर्थ नहीं उपलब्ध होते हैं तो इससे जिनवचन को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । गोत्रकर्म निष्फल है, यह बात भी नहीं है; क्योंकि, जिनका दीक्षायोग्य साधु - आचार है, साधु - आचारवालों के साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है तथा जो 'आर्य' इस प्रकार के ज्ञान और वचनव्यवहार के निमित्त हैं, उन पुरुषों की परम्परा को उच्चगोत्र कहा जाता है। उनमें उत्पत्ति का कारणभूत कर्म भी उच्चगोत्र है । यहाँ पूर्वोक्त दोष सम्भव ही नहीं है, क्योंकि उनके होने में विरोध है। उससे विपरीत कर्म नीचगोत्र है। इस प्रकार गोत्रकर्म की दो ही प्रकृतियाँ होती हैं ।" वस्तुतः गोत्रकर्म का सम्बन्ध जातिगत न होकर जीव के ऊँच-नीच भावों से है, जैसाकि श्री वीरसेनाचार्य ने अन्यत्र कहा है उच्चुच्च उच्च तह उच्चणीच नीचुच्चणीचणीचं च । जस्सोदएण भावो णीचुच्चविवज्जिदो तस्स | | 10 || - धवला, पुस्तक 7 जिस गोत्रकर्म के उदय से जीव उच्चोच्च, उच्च, उच्चनीच, नीचोच्च, नीच और नीचनीच भाव को प्राप्त होता है उसी नीच गोत्र के क्षय से वह जीव उच्च एवं नीच भावों से मुक्त होता है । इससे स्पष्ट है कि गोत्रकर्म का सम्बन्ध भावों से है, क्योंकि यह जीव विपाकी कर्म प्रकृति है, पुद्गल विपाकी नहीं है । यदि यह पुद्गल - विपाकी कर्म होता तो शरीर से संबंधित होता । उच्च-नीच अर्थात् गुरु और लघु भावों से मुक्त होना ही अगुरु, लघु गुण का प्रकट होना है। गोत्रकर्म के बंध हेतु पहले कह आये हैं कि गोत्र कर्म के दो भेद हैं- नीच गोत्र एवं उच्च गोत्र । इनमें से नीच गोत्र पाप प्रकृति है । जिसका उपार्जन (आस्रव) मद से अर्थात् मान कषाय के उदय से होता है तथा उच्च गोत्र पुण्य प्रकृति है जिसका उपार्जन मृदुता से अर्थात् मान कषाय की कमी से होता है । जैसा कि कहा है माणं मद्दवया जिणे ।। (उत्तरा. अ. 8, गाथा 39 ) माणविजएणं मद्दवं जणयइ ।। (उत्तरा अ. 29 सूत्र 69 ) गोत्र कर्म 189
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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