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________________ चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन होने पर जब यह अनुभव होता है कि दुःख का कारण विषय-कषाय, राग-द्वेष आदि विकार हैं, इन विकारों से ग्रस्त सभी प्राणी दुःखी हैं, इन प्राणियों का कल्याण राग-द्वेष आदि विकार दूर होने में है। मैं इन्हें वह मार्ग बताऊँ जिस पर चलकर इनके विकार दूर हों और इनका कल्याण हो। कल्याण करने की इस भावना का अत्यन्त तीव्र होना तीर्थकर प्रकृति का सूचक है। चौथे गुणस्थान में कल्याणकारक सेवाभाव का अनुभाग सीमित होता है, परन्तु जैसे-जैसे साधक साधना पथ पर आगे बढ़ता जाता है उसका सेवाभाव विस्तृत होता जाता है तथा कर्तृत्व भाव घटता जाता है। यह कल्याणकारी सेवाभाव जितना विभु होता जाता है, तीर्थंकर प्रकृति का अनुभाग उतना ही बढ़ता जाता है जो आठवें गुणस्थान में अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है। उस समय उसमें संसार के समस्त जीवों का कल्याण हो, सब जीव निर्विकार हों, यह उत्कृष्टभाव हो जाता है। फिर केवलज्ञान प्रकट होने पर वह तीर्थ की स्थापना करता है और भव्य जीवों को मुक्ति के मार्ग का उपदेश देता है। त्रस नाम कर्म जिस कर्म के उदय से जीव एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्व-प्रयत्न से चल सके वह त्रस नाम कर्म है। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस जीव हैं। स्थावर नाम कर्म जिस कर्म के उदय से जीव स्वेच्छा से न चल सके, एक ही स्थान पर स्थिर रहे, वह स्थावर नाम कर्म है। बादर नामकर्म ___जिस जीव का शरीर छेदा, भेदा जा सके, ऐसे स्थूल शरीर का मिलना बादर नामकर्म है। सूक्ष्म नामकर्म जिस जीव का शरीर अदृश्य हो एवं इतना सूक्ष्म हो कि छेदा-भेदा नहीं जा सके वह सूक्ष्म नामकर्म है। पर्याप्त नामकर्म जिस कर्म के उदय से जीव अपनी योग्य पर्याप्तियों से युक्त हो, उसे पर्याप्त नाम कर्म कहते हैं। नाम कर्म 177
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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