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________________ इस प्रकार ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम (कमी) के अनुसार जीव में ज्ञान व दर्शन की शक्ति बढ़ती है और उसमें स्थूलतर, स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर पदार्थों के संवेदन रूप से ग्रहण करने व उन्हें जानने की शक्ति का विकास होता है और प्रकृति या कर्म के नियमानुसार उस शक्ति की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में पाँच इन्द्रियां हैं, अतः जातियाँ भी पाँच हैं, यथा- केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय वाले जीव एकेन्द्रिय जाति के; स्पर्शन व रसना इन दो इन्द्रिय वाले जीव द्वीन्द्रिय जाति के ; स्पर्शन, रसना, घ्राण इन तीन इन्द्रिय वाले जीव त्रीन्द्रिय जाति के; स्पर्शन, रसना, घ्राण व चक्षु इन चार इन्द्रिय वाले जीव चतुरिन्द्रिय जाति के तथा इनमें श्रोत्र और मिलाने पर पाँच इन्द्रिय वाले जीव पंचेन्द्रिय जाति के कहे जाते हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न संख्याओं में इन्द्रियों को धारण करने वाले जीवों के समूह को जाति कहा गया है। शरीर नामकर्म शरीर चेतना की क्रिया या प्रवृत्ति करने का साधन है। यह पहले कहा जा चुका है कि जैसा अंतर में होता है उसी के अनुरूप बाह्य जगत् का निर्माण होता है। इसी प्राकृतिक नियमानुसार जब प्राणी में भोग की कामना उत्पन्न होती है तो उसे भोगने के लिए साधन चाहिए और वह साधन शरीर होता है। अतः जब-जब भोग की इच्छा या कामना उठती है तब-तब शरीर का निर्माण करने वाली प्रकृति का भी निर्माण होता है । शरीर पाँच हैं यथा - (1) औदारिक, ( 2 ) वैक्रिय, (3) आहारक, (4) तैजस और (5) कार्मण। औदारिक शरीर - अर्थात् उदार या स्थूल पुद्गलों से निर्मित स्थूल शरीर जिसका काटने, छेदने आदि से विनाश संभव है । वैक्रिय शरीर— मानसिक विकार के अनुरूप शरीर का निर्माण होना । आहारक शरीर - जिज्ञासा पूर्ति के लिए ऐसे शरीर का निर्माण होना जिसके माध्यम से वीतराग सर्वज्ञ शुद्ध स्वरूप से अपना संपर्क कर उत्तर प्राप्त किया जा सके । तैजस शरीर - वे पुद्गल जो शरीर में सर्वत्र व्याप्त होते हैं एवं शरीर को सक्रिय रखते हैं । कार्मण शरीर - कर्म पुद्गलों का वह समूह जो प्राणी की इच्छा उत्पत्ति के आकर्षण से, राग-द्वेष से आकृष्ट हो कर्मशरीर रूप में आत्मा 1 नाम कर्म 163
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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