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________________ भगवद्गीता के शब्दों में 1. आसुरी राक्षसी प्रकृति नरक गति की 2. तामसी प्रकृति तिर्यंच गति की, 3. राजसी प्रकृति- मनुष्य गति की एवं 4. सात्त्विक प्रकृति देव गति की जनक व द्योतक है।। प्रकृति का यह नियम है कि व्यक्ति की जैसी प्रवृत्ति या प्रकृति होती है उसी प्रवृत्ति के अनुरूप उसके जीवन का सर्जन होता है, ताकि वह अपनी प्रकृति, प्रवृत्ति या कामना का उचित फल भोग सके। जिसकी पाशविक वृत्ति, प्रवृत्ति, प्रकृति है वह पशु शरीर धारण करता है। मानवीय गुणों से संपन्न व्यक्ति मानव बनता है। दिव्य गुणों से संपन्न जीव देव बनता है। आशय यह है कि गति का बीज-वपन अन्तःकरण की भूमिका में होता है, जो कालान्तर में उस गति को प्राप्त कराता है। मानव इस बात में स्वतन्त्र है कि वह अपने अन्तःकरण में किसी भी गति का बीज वपन कर उसका फल भोग सकता है। वह अंतःकरण में अनेक कामनाओं को उत्पन्न कर नारकीय जीवन भोग सकता है। वह भोग में गृद्ध हो पशु का जीवन भोग सकता है, भोग से जड़ता की स्थिति को प्राप्त हो स्थावर का जीवन भोग सकता है। वह मानवता व संयम को धारण कर अमरत्व व अक्षय सुख को प्राप्त कर अपने मानव जीवन को सार्थक भी बना सकता है। वह करुणा, उदारता व शुभभाव को धारण कर देव जीवन के दिव्य सुख को भोग सकता है। आशय यह है कि कामना की अधिकता से नरकगति की, भोगों की गृद्धता से तिर्यंच गति की, मृदुता और सरलता से मनुष्य गति की और भावों की शुभता से देव गति की प्राप्ति होती है। प्रकारान्तर से कहें तो अप्राप्त अनेक वस्तुओं की कामना करने वाला नरकगामी, प्राप्त वस्तुओं के भोगों की दासता में आबद्ध रहने वाला तिर्यंचगामी, प्राप्त वस्तुओं का परोपकार या सेवा में सदुपयोग करने वाला देवगामी एवं प्राप्त विषय-भोगों का त्याग करने वाला जीव मुक्तिगामी होता है। जाति नामकर्म एवं इन्द्रियों का विकास अनेक प्राणियों में एकता की प्रतीति करानेवाले समान धर्म को जाति कहा जाता है। जैसे- गो जाति के अन्तर्गत पीली, सफेद, लाल आदि सभी गायें गाय कहलाती हैं। इसी प्रकार स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ समान 158 नाम कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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