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________________ भवति; तओ भवइ दुकवे दुवण्णे दुग्गंधे दूरसे दुप्फासे अणिठे अकंते अप्पिए असुभे अमणुण्णे अमणामे ठीणस्य दीणस्य अणिढरपरे अकंतस्परे अप्पियस्सरे असुभस्सरे अणुण्णस्य अमणामस्सरे अणादेज्जवयणे पच्चायाए यावि भवइ।वण्णवज्झाणिय से कम्माइंनो बदाइ जाव उवसंता भवइ तओ भवइ सुरुवे। जाव आदेज्जवयणे पच्चायाए यावि भव। -व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक 1 उ.7 सूत्र 22 कर्मानुभाव से जीव के कुरूपत्व, सुरूपत्व आदि की उत्पत्ति होती है। गर्भ से निकलने के पश्चात उस जीव के कर्म यदि अशुभ रूप में बंधे हों, स्पृष्ट हों, निधत्त हों, कृत हों, प्रस्थापित हों, अभिनिविष्ट हों, अभिसमन्वागत हों, उदीर्ण हों और उपशान्त न हों तो- वह जीव कुरूप, कुवर्ण, दुर्गन्ध वाला, कुरसवाला, कुस्पर्शवाला, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनाम, हीनस्वर, दीनस्वर, अशुभ स्वर, अमनोज्ञ स्वर, अमनाम स्वर और अनादेय वचन वाला उत्पन्न होता है। यदि उस जीव के कर्म शुभ रूप में बंधे हों यावत् उपशान्त हों तो वह जीव सुरूप यावत् आदेय वचन वाला उत्पन्न होता है। नामकर्म के बंध हेतु गोयमा? कायउज्जुयाए भावुज्जयाए भासुज्जयाए अविसंवायणजोगेणं सुभनामकम्मासरीर-जाव पओगबंधे। -भगवती सूत्र 8.9.107 गोयमा? कायअणुज्जुयाए भावअणुज्जुयाए भासअणुज्जुययाए विसंवायणजोगेणं असुयनामकम्माजावपओगबंधे। -भगवती सूत्र 8. 9.108 काया की सरलता, भावों की सरलता, भाषा (वाणी) की सरलता तथा अविसंवादन योग से शुभनामकर्म का बंध होता है। काया की वक्रता, भावों की वक्रता, भाषा (वाणी) की वक्रता और विसंवादयोग से अशुभ नामकर्म का बंध होता है। तत्त्वार्थसूत्र में संक्षेप में कहा गया हैयोगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः। विपरीतं शुभस्य।। -तत्त्वार्थ सूत्र, 6.21-22 नाम कर्म 155
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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