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________________ आयु कर्म आयुकर्म का स्वरूप जिस कर्म के उदय से जीव जीवित रहता है, एक भव में अवस्थित रहता है, चाहकर भी उससे निकल नहीं पाता, उसे आयु कर्म कहते हैं। यह नियम है कि प्राणी की प्रवृत्ति जब प्रगाढ़ हो जाती है तो वह प्रकृति (आदत) का रूप धारण कर लेती है। फिर वह जीवन बन जाती है अर्थात् उस प्रकृति के अनुरूप ही वह आगे का जीवन या भव धारण करता है। यह भव धारणा जिससे होती है, वह आयु कर्म है। भव की स्थिति ही आयु कर्म की स्थिति है। संक्षेप में एक भव में शरीर की जीवनी-शक्ति को आयु कर्म कहा जा सकता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि आयु कर्म का बंध सदैव नहीं होता है तथा आयु कर्म का बंध प्राणी की मध्यमान प्रकृति (औसत आदत) के अनुसार होता है। भावावेश आदि में आकर की गई प्रवृत्ति की तीव्रता या मन्दता में जो केवल कुछ काल टिकने वाली है, उसमें आयु कर्म का बंध नहीं होता है। आयुकर्म चार प्रकार का है- 1. नरकायु 2. तिर्यंचायु 3. मनुष्यायु और 4. देवायु। इन चारों आयुओं के बंध के हेतुओं का ज्ञान जीवन के लिए अत्युपयोगी है। अतः यहाँ पर प्रत्येक आयु कर्म के बंध के हेतुओं पर विशेष प्रकाश डाला जा रहा है। नरकायु जीव को नरकभव में रखने वाली जीवनी-शक्ति नरकायु है। यह अशुभ आयु है। भगवती सूत्र में नरकायु बंध के हेतुओं का निरूपण करते हुए कहा गया है गोयमा? मठारंभयाए, मठापरिग्गठयाए, कुणिमाठारेणं, पचिन्दियवटेणं णेझ्याउयकम्मा, जाव पओगबंधे। . __ -भगवती सूत्र, शतक 8, उद्दे.9, सूत्र 103 अर्थात् हे गौतम! महारंभ, महापरिग्रह, मांसाहार एवं पंचेन्द्रिय जीवों के वध से नरक आयु का बंध होता है। 136 आयु कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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