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________________ इच्छा तो किसी के हो और किसी के नहीं भी हो, कारण कि जिसके इन वस्तुओं का अभाव हो वह किसके रक्षण की इच्छा करे ? परन्तु शरीर के रक्षण की इच्छा प्राणिमात्र को होती है। क्योंकि जब तक प्राणी का शरीर है तब तक ही वह जीवित है और शरीर के नाश से उस प्राणी की मृत्यु हो जाती है । मृत्यु किसी को पसंद नहीं है । इसीलिए सभी प्राणी मृत्यु से भयभीत हैं । जहाँ शरीर के रक्षण की इच्छा है वहाँ शरीर को हानि न पहुँच जाय, शरीर का नाश न हो जाय, यह भय भी बना ही रहता है । रक्षण की इच्छा के साथ हानि या विनाश का भय जुड़ा ही रहता है। इसीलिए प्राणिमात्र अपने शरीर के रक्षण की इच्छा व हानि के भय से सदा संत्रस्त रहता है । पक्षियों को देखिये, एक दाना चुगते हैं फिर चारों ओर देखते हैं, क्योंकि उनको भय है कि वे दाना चुगने में कहीं असावधान रह जायें और कोई उन्हें दबोच न ले। हमारी आँख की ओर कोई वस्तु या हाथ आया कि हमारी पलक तत्काल आँख को ढक कर उसकी रक्षा करती है और यह कार्य इतनी शीघ्रता से होता है कि हमें पता ही नहीं चलता कि आँख को सामने से आने वाली वस्तु से हानि पहुँचेगी, इस भय से हम कब भयभीत हुए और कब आँख की रक्षा करने के लिए पलक मूँद ली। भय और रक्षण, ये दोनों कार्य हमारे अचेतन मन ने इतनी शीघ्रता से कर दिये कि बेचारे चेतन मन को जानकारी नहीं हो सकी। चेतन मन को जानकारी हो या न हो अचेतन मन में शरीर के रक्षण की इच्छा व शरीर को कोई हानि न पहुँचा दे, यह भय सदा बना रहता है । इसलिए ज्ञानियों ने भय और जुगुप्सा को ध्रुवबंधिनी कर्म प्रकृतियाँ कहा है। 'जुगुप्सा' शब्द का एक अर्थ मानसिक ग्लानि भी है। शरीर के रक्षण की अभिलाषा के साथ मरण का भय जुड़ा हुआ है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शरीर का अंत या मृत्यु अवश्यंभावी है। इस सत्य का पता अचेतन मन या विवेक बुद्धि को सदा रहता है । अतः मृत्यु के भय के दुःख का शूल अंतःकरण में सदा चुभता रहता है। जिससे मन में बड़ी नीरसता, अरुचि व ग्लानि पैदा होती है। इसी ग्लानि को भुलाने या या गम को गलत करने के लिए व्यक्ति अपने को किसी न किसी आमोद-प्रमोद के कार्य में व्यस्त रखता है। युद्ध में रत सैनिक सदा - हंसने-हंसाने, खेल-तमाशों व मोहनीय कर्म 127
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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