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(10) अपर
(8) संज्वलन मान- मान की उत्पत्ति से दीनता और अभिमान की अग्नि
में जलना संज्वलन मान है। माया कषाय
मुझे स्वाधीनता चाहिए- इस स्वाभाविक ज्ञान, निजज्ञान, विवेक के विपरीत आचरण करना माया है। ममता इसका क्रियात्मक रूप है। देह, इन्द्रिय, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, धन, संपत्ति आदि जो सदा साथ नहीं देने वाले हैं, जो एक दिन अवश्य धोखा देने वाले हैं, इन्हें अपना मानना धोखा है, माया है। (9) अनन्तानुबंधी माया - वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, परिवार, धन,
संपत्ति, समाज, संप्रदाय आदि नश्वर एवं पौद्गलिक पदार्थों को सदा अपना मानते रहना, ये सब मेरे बने रहें, मेरे से जुड़े रहें, अनन्तकाल तक इनका वियोग कभी न होने पावे, इसके लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना, अनन्तानुबंधी माया है। अप्रत्याख्यानावरण माया- जहाँ माया या ममता है, वहाँ पराध नता है। पराधीनता भयंकर दुःख है। इस दुःख से छूटने की अभिलाषा (भावना) उत्पन्न न होना, अर्थात् ममता को बढ़ाने से अपने को न रोकना, इसको न घटाना या परिमाण न करना अप्रत्याख्यानावरण
माया है। (11) प्रत्याख्यानावरण माया- ममता के त्याग से स्वाधीनता, सरलता,
सरसता आदि दिव्य गुणों के सुखों की उपलब्धि होती है। उन सुखों के पाने की अभिलाषा न होना अर्थात् ममता का त्याग न करना
प्रत्याख्यानावरण माया है। (12) संज्वलन माया– माया व ममता की रुचि, उत्पत्ति व स्मृति से पराध
गीनता, विवशता की ज्वाला में जलना संज्वलन माया है। लोभ कषाय
विषय सुख के प्रलोभन के वशीभूत हो सुख की सामग्री जुटाने की प्रवृत्ति लोभ है। तृष्णा इसका क्रियात्मक रूप है। (13) अनन्तानुबंधी लोभ- विषय सुख को जीवन मानकर सुख की
सामग्री जुटाने एवं उसे सदैव बनाये रखने में अपने को सदैव रत
रखना, अनन्तानुबंधी लोभ है। 122
मोहनीय कर्म