SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वेदनीय कर्म वेदनीय कर्म का स्वरूप शरीर, मन एवं इनसे संबंधित अनुकूलता में सुख का और प्रतिकूलता में दुःख का अनुभव वेदनीय कर्म से होता है। सुख का अनुभव होना साता-वेदनीय और दुःख का अनुभव होना असातावेदनीय है। जीवस्य सुठ-दुक्खुप्पाययं कम्मं वेदणीयं णाम। -धवला पुस्तक 13, सूत्र 5.5.19 जीव के सुख और दुःख का उत्पादक कर्म वेदनीय है। वेदयति वेधत इति वा वेदनीयम्। –सर्वार्थसिद्धि, 8.4 वेधस्य सदसल्लक्षणस्यसुखदुःखसंवेदनम्। -सर्वार्थसिद्धि, 8.3 जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा वेदन किया जाता है वह वेदनीय कर्म है। सत्-असत् लक्षणवाले वेदनीय कर्म की प्रकृति का कार्य सुख तथा दुःख का संवेदन कराना है। अक्रवाणं अणुभवणं वेयणियं सुल्यकवयं यादं। दुरवसरुवमादं तं वेदयदीदि वेदणिय। -गोम्मटसार, कर्मकांड, गाथा 14 इन्द्रियों का अपने-अपने रूपादि विषय का अनुभव करना वेदनीय है। उसमें सुख रूप अनुभव करना साता वेदनीय है और दुःख का अनुभव करना असाता वेदनीय है। अनुभव करना वेदनीय कर्म है। उपर्युक्त गाथा में इन्द्रियों के विषयों के सुख-दुःख रूप अनुभव करने को वेदनीय कर्म कहा है, विषय और विषय-सामग्री की प्राप्ति-अप्राप्ति को वेदनीय कर्म नहीं कहा है। सादस्य गदियाणुवादेण जहण्णमंतरमंतोमुत्तं उक्कसंपि अंतोमुठुत्तं च वा असादस्य जहण्णमंतरमेगसमाओ, उक्कस्वयं छम्माया। मणुसगदीए अयादस्य उदीरणंत जठण्णण एगसमओ उक्करमेण अंतोमुटुत्तं (धवला पुस्तक 15, पृ. 68/6) वेदनीय कर्म 95
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy