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________________ करता है। देहातीत होने पर निज चैतन्य स्वरूप का दर्शन होता है। यही सम्यग्दर्शन है। केवल जीव-अजीव या जड़-चेतन को भिन्न-भिन्न जान लेने या मान लेने से, ऐसा चिंतन करते रहने से या अपने को ऐसा निर्देश देने (आत्म-सम्मोहन) मात्र से सम्यग्दर्शन होना संभव नहीं है। इन सबसे सम्यग्दर्शन के लिए प्रेरणा मिल सकती है, परन्तु सम्यग्दर्शन की उपलब्धि तो तभी संभव है जब साधक अंतर्मुखी होकर स्व-संवेदन करता है तथा देहातीत होकर जड़ देह से भिन्न अपने चैतन्य स्वरूप का दर्शन करता है। आशय यह है कि जड़-चेतन की भिन्नता पर चिन्तन व चर्चा करके आत्म-निर्देशन देकर अपने को भेद-विज्ञानी व सम्यग्दृष्टि मान लेना भूल है, अपने आपको धोखा देना है। अतः अंतर्मुखी होकर स्व-संवेदन करते हुए जब तक देहातीत चिन्मय-चैतन्य अवस्था की अनुभूति न हो जाय, तब तक सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिये सतत पुरुषार्थ करते रहना चाहिये । वस्तुतः दर्शन अनुभूति का विषय है, ज्ञान का नहीं। फिर चाहे वह दर्शन मिथ्यात्व के क्षय अथवा उपशम से प्रकट सम्यग्दर्शन हो अथवा दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट दर्शन गुण हो। ये दोनों ही दर्शन विकल्पात्मक ज्ञान के विषय न होकर निर्विकल्प स्व-संवेदन रूप अनुभव के विषय हैं। भेद-विज्ञान से संबंधित चिंतन व चर्चा अन्तर्मुखी बनने में सहायक होती है, परन्तु भेद विज्ञान का अनुभव तो अंतर्मुखी होने पर निज स्वरूप के दर्शन से ही संभव है। यही अनुभव सम्यग्दर्शन है। अर्थात् स्व-संवेदन रूप दर्शन गुण के विकास (क्षयोपशम) से ही सम्यग्दर्शन होता है। यह नियम है कि जितनी-जितनी निर्विकल्पता बढ़ती जाती है उतना-उतना दर्शन गुण का विकास होता जाता है अर्थात् चिन्मयता का , निज स्वरूप का अनुभव (बोध) होता जाता है। जितना-जितना निज स्वरूप का अनुभव होता जाता है, उतना-उतना सत्य प्रकट होता जाता है, सत्य का दर्शन (अनुभव) होता जाता है। सत्य के दर्शन से, सत्य के साक्षात्कार से अविनाशी चैतन्य निज स्वरूप का अनुभव देहातीत स्थिति के स्तर पर हो जाता है। तब देह (जड़) से चेतन की भिन्नता का स्पष्ट अनुभव या दर्शन होता है। यही ग्रंथिभेद है, यही भेद विज्ञान है, यही सम्यग्दर्शन है। अतः सम्यग्दर्शन के लिए दर्शन गुण (स्व-संवेदन) का 86 दर्शनावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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