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अतः जो भी युक्तियाँ केवली के युगपत् उपयोग के समर्थन में दी जायेंगी, वे सब युक्तियाँ छद्मस्थ पर भी लागू होगी और छदमस्थ के भी दोनों उपयोग युगपत् मानने पड़ेंगे। जो श्वेताम्बर- दिगम्बर आदि किसी भी जैन सम्प्रदाय को मान्य नहीं है। अतः केवली के दोनों उपयोग युगपत् मानने में विरोध आता है। इसी प्रकार छदमस्थ जीव के दोनों उपयोग युगपत् न मानने के लिए जो भी युक्तियाँ दी जायेंगी, वे केवली पर भी लागू होंगी और केवली के दोनों उपयोग युगपत नहीं होते, यह सर्वग्राह्य सिद्धान्त है। अतः अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकार से यह सिद्ध होता है कि केवली के युगपत् दोनों उपयोग नहीं होते हैं। सिद्धान्त भी इसका साक्षी है। मेरा इस सम्बन्ध में किंचित भी आग्रह नहीं है। आशा है कि विद्वज्जन तटस्थ बुद्धि से विचार कर अपना मन्तव्य प्रकट करेंगे।
पहले कह आए हैं कि प्रत्येक जीव में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग इन दोनों उपयोगों में से कोई भी एक उपयोग सदैव होता है। परन्तु जब ज्ञानोपयोग होता है, तब दर्शनोपयोग नहीं होता है और जब दर्शनोपयोग होता है, तब ज्ञानोपयोग नहीं होता है। यहाँ तक कि पाँच ज्ञानों में से किसी एक ज्ञान का उपयोग होता है, तब अन्य ज्ञानों का उपयोग उस समय नहीं होता है। उस एक ज्ञान में भी उसके किसी एक भेद का ही उपयोग होता है, अन्य भेदों का उपयोग नहीं होता है। यथा- जिसके मतिज्ञान के अवग्रह ज्ञान का उपयोग होता है, उस समय अवाय आदि मतिज्ञान के अन्य भेदों का तथा श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान आदि किसी भी अन्य ज्ञान का उपयोग नहीं होता है। इसी प्रकार दर्शनोपयोग के लिए समझना चाहिए। जैसे किसी भी जीव को अचक्षु दर्शन का उपयोग होता है, उस समय चक्षु दर्शन, अवधि दर्शन आदि अन्य दर्शनों का उपयोग नहीं होता है। अचक्षुदर्शन में जब श्रोत्रेन्द्रिय के अचक्षु दर्शन का उपयोग होता है, उस समय घ्राणेन्द्रिय आदि अन्य इन्द्रियों का अचक्षुदर्शनों का उपयोग नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि पाँच ज्ञान, चार दर्शन और तीन अज्ञान (मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान), इन बारह उपयोगों में से किसी एक उपयोग या उसके किसी भी भेद का उपयोग होता है, उस समय अन्य उपयोग नहीं होता है। परन्तु उपयोग न होने से उस समय ज्ञान गुण और दर्शन गुण के अन्य भेदों का अभाव हो जाता है अथवा न्यूनाधिकता हो
दर्शनावरण कर्म